Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 21
________________ श्री अमूढदृष्टि अंग पूजन ८. श्री अमूढ़ दृष्टि अंग पूजन (रोला) अंग अमूढदृष्टि की पूजन करता हूँ प्रभु। तीन मूढ़ताएँ विवेक से हरता हूँ विभु ।। देवमूढ़ता है अनादि से भवदुःखकारी। गुरुमूढ़ता है सदैव से अनिष्टकारी ।। लोकमूढ़ता देखा-देखी कुछ भी करना। आत्मधर्म की महिमा अपने हाथों हरना ।। इन तीनों का त्याग करूँ मिथ्यातम नायूँ। सम्यग्दर्शन पूर्ण भावमय हृदय प्रकारों। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य अमूढदृष्टि अंग अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य अमूढदृष्टि अंग अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य अमूढदृष्टि अंग अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (विधाता) साम्यभावी स्वजल लाऊँ परम निर्मल मैं हो जाऊँ। जन्म-मरणादिदुःख क्षयकर शाश्वत ध्रौव्य सुख पाऊँ।। तर्जे मिथ्यात्व पाँचों प्रभु पंच प्रत्यय पे जय पाऊँ। अमूढदृष्टि बनूँ स्वामी पूर्ण समकित हृदय लाऊँ ।।१।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। साम्यभावी स्वचंदन की सुगंधित निज पवन लाऊँ। राग संसार का क्षयकर शाश्वत ध्रौव्य सुख पाऊँ ।। तर्जे मिथ्यात्व पाँचों प्रभु पंच प्रत्यय पे जय पाऊँ। अमूढदृष्टि बनूँ स्वामी पूर्ण समकित हृदय लाऊँ।।२।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। साम्यवादी स्वअक्षत पा करूँ मैं पार भवसागर । स्वपद अक्षय प्रकट करके ध्रौव्य सुख लाभ हो सत्वर ।। तज़े मिथ्यात्व पाँचों प्रभु पंच प्रत्यय पे जय पाऊँ। अमूढदृष्टि बनें स्वामी पूर्ण समकित हृदय लाऊँ।।३।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । साम्यभावी कुसुम लाऊँ काम की पीर विनशाऊँ। महा गुण लाख चौरासी शीघ्र उर मध्य प्रगटाऊँ।। तर्जे मिथ्यात्व पाँचों प्रभु पंच प्रत्यय पे जय पाऊँ। अमूढदृष्टि बनूँ स्वामी पूर्ण समकित हृदय लाऊँ।।४।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। साम्यभावी स्वरसमय चरु भावना पूर्वक लाऊँ। क्षुधा का रोग विनशाऊँ शाश्वत ध्रौव्य सुख पाऊँ।। तर्जे मिथ्यात्व पाँचों प्रभु पंच प्रत्यय पे जय पाऊँ । अमूढदृष्टि बनें स्वामी पूर्ण समकित हृदय लाऊँ।।५।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । साम्यभावी दीप जगमग हृदय में नाथ प्रगटाऊँ । मोह मिथ्यात्व की आँधी सदा को नाथ विघटाऊँ।। त मिथ्यात्व पाँचों प्रभु पंच प्रत्यय पे जय पाऊँ। अमूढदृष्टि बनूँ स्वामी पूर्ण समकित हृदय लाऊँ।।६।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। साम्यभावी धूप लाऊँ कर्म सम्पूर्ण विघटाऊँ। प्रभो निर्भार हो जाऊँ शाश्वत ध्रौव्य सुख पाऊँ।। तर्जे मिथ्यात्व पाँचों प्रभु पंच प्रत्यय पे जय पाऊँ। अमूढदृष्टि बनें स्वामी पूर्ण समकित हृदय लाऊँ।।७।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । साम्यभावी स्वरसमय फल अंतरंगी हृदय लाऊँ। मोक्षफल प्राप्तकर के प्रभु शाश्वत ध्रौव्य सुख पाऊँ।। तर्जे मिथ्यात्व पाँचों प्रभु पंच प्रत्यय पे जय पाऊँ। अमूढदृष्टि बनूँ स्वामी पूर्ण समकित हृदय लाऊँ।।८।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । 20

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