Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 22
________________ श्री अमूढदृष्टि अंग पूजन रत्नत्रय विधान साम्यभावी अर्घ्य अनुपम भावमय शीघ्र ही लाऊँ। स्वपद पाऊँ अनर्घ्य अपना शाश्वत ध्रौव्य सुख पाऊँ।। तर्जे मिथ्यात्व पाँचों प्रभु पंच प्रत्यय पे जय पाऊँ। अमूढदृष्टि बनूँ स्वामी पूर्ण समकित हृदय लाऊँ ।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (शार्दूलविक्रीडित) जो हैं मूढ़ अजान जीव वे ही सुख खोजते बाहा में। शाश्वत सुख तो है सदैव भीतर उनको पता ही नहीं।।१।। यदि निरखें निज आत्मतत्त्व को तो दृष्टिबदल जाएगी। पाएँगे सुख स्रोत सिन्धु निज में आत्मा सँभल जाएगी।।२।। शाश्वत तो है आत्मतत्त्व केवल संसार है नाशमय । इसका ही आश्रय महान सुन्दर सम्यक्त्वदाता सदा ।।३।। इसका ही श्रद्धान ज्ञान हो तो वैराग्य आता हृदय। इसमें ही यदि रमण सतत् हो तो चरित्र है ज्ञानमय ।।४।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, तनँ मूढ़ता देव। सम्यग्दर्शन प्राप्तकर, सिद्ध बनूं स्वयमेव ।।५ ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (वीर) तत्त्वों में रुचिवंत पुरुष मूढ़ता रहित करते श्रद्धान । उपादेय निज, हेयतत्त्व पर, की करते सम्यक् पहिचान ।।१।। सम्यग्दर्शन श्रेष्ठरत्न है खंडित होता कभी नहीं। सम्यग्दृष्टि मूढ़भावों से मंडित होता कभी नहीं ।।२।। देवाभास नहीं है उर में धर्माभास नहीं उर में। नहीं गुरु आभास हृदय में आत्मधर्म है निजपुर में ।।३।। पर परिणति के भंवरजाल में मूढदृष्टि फँस जाते हैं। और अंततोगत्वा मरकर वे निगोद दुःख पाते हैं।।४।। निज परिणति की संगति पाकर जो भी निज को ध्याते हैं। सम्यग्दृष्टि वही होते हैं भवभ्रम पूर्ण मिटाते हैं ।।५।। निश्चय का ही अवलंबन है रंच नहीं व्यवहाराभास । कुगुरु कुदेव कुधर्ममूढ़ता का क्षय कर दूँ दुःखमय त्रास ।।६।। जो विमूढ़ हैं पर में उसके भीतर बैठा है अज्ञान। विविध मूढ़ताओं से दूषित कैसे पाएँ सम्यग्ज्ञान ।।७।। बनूँ अमूढदृष्टि में भी प्रभु सम्यग्दर्शन पाऊँ पूर्ण । स्वानुभूति से परिणय करके शाश्वत सुख पाऊँ अपूर्ण ।।८।। मिथ्यामार्गी कुमार्गियों की कभी प्रशंसा करूँ नहीं। मन वच काया से इनकी अणुभर अनुशंसा करूँ नहीं।।९।। समकित का यह अंग पाँचवाँ सत्पथ देता है बिन श्रम । भेद ज्ञान विज्ञान पूर्वक ही होता यह परमोत्तम ।।१०।। ॐ ह्रीं श्री अमूढदृष्टिअंगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णाय॑ निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) अंग अमूढदृष्टि की पूजन करके सम्यक् पथ पाऊँ। निर्मल सम्यग्दर्शन पाकर मोक्षमार्ग पर आ जाऊँ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् प्रकट स्वरूपाचरण हुआ है ज्यों चंदा की कोर। ज्ञानदूज पायी है मैंने चलूँ पूर्णिमा ओर।। निजपरिणति संग नाचूँ-गाऊँ चले न पर का जोर । पावन समकित शीतल चंदन का गूंजा है शोर ।। भव का अंत निकट आया अब बूँद मात्र संसार । आज विजय का पर्व अनूठा मंगलमय सुखकार ।। 21

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