Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ रत्नत्रय विधान तिमिर विनाशक दीप प्रजाल। हरूँ मोहभ्रम का जंजाल।। निर्विचिकित्सा अंग महान । करता निज-पर का कल्याण ।।६।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। शुक्लध्यान की धूप अनूप । हरती अष्टकर्म दुःखरूप ।। निर्विचिकित्सा अंग महान । करता निज-पर का कल्याण ।।७।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। शुक्लध्यान फल मोक्ष महान । परम सौख्यदाता अमलान ।। निर्विचिकित्सा अंग महान। करता निज-पर का कल्याण ।।८।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । उत्तम शुद्ध अर्घ्य अविकार। पद अनर्घ्य दाता साकार ।। निर्विचिकित्सा अंग महान । करता निज-पर का कल्याण ।।९।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (शार्दूलविक्रीडित) सुनते-सुनते एक बात सुन लो समकित बिना सुख नहीं। संशय विभ्रम विनय घोर एकान्त अज्ञान समदुःख नहीं।।१।। जब तक है यह मोह दुष्ट उर में सम्यक्त्व होगा नहीं। कोई भी तो भेद-ज्ञान के बिन होता स्वसन्मुख नहीं ।।२।। (उपजाति) परभाव मुझको दुःख दे रहे हैं, निजभाव मैंने जाना नहीं है। मैं हूं त्रिकाली ध्रुवधामवासी, मैंने कभी भी माना नहीं है ।।३।। निज ज्ञानधारा से हो विभूषित, अब मैं बनूँगा निज आत्मध्यानी। चारों कषायों को क्षीण करके, हो जाऊँगा मैं कैवल्यज्ञानी ।।४।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्सांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (वीर) पर द्रव्यों में द्वेषरूप जो ग्लानि उसी का करूँ अभाव । निजस्वभाव से प्रीत बढ़ाऊँ प्राप्त करूँ निज शुद्धस्वभाव ।।१।। द्वेष अरोचक भाव न हो प्रभु शद्धातम से करूँन द्वेष। सतत प्रतीति सुदृढ़ हो निज की निज से ही हो प्रेम विशेष ।।२।। श्री निर्विचिकित्सा अंग पूजन मुनि का तन यदि मलिन दिखे तो निर्मल उसे बनाऊँ नाथ । मुनि तन का मल-मूत्र आदि सब बिना घृणा फेंकूँ निज हाथ ।।३।। सेवा का हो भाव हृदय में विचिकित्सा का दोष नहीं। जब तक रोग दूर ना होवे तो उसमें संतोष नहीं ।।४।। इस जड़ तन के सभी द्वार नौ घोर घृणामय हैं अपवित्र । यदि रत्नत्रय की प्रतीति जागे तो हो जाये देह पवित्र ।।५।। रत्नत्रयधारी की काया तो होती है सदा पवित्र । चाहे जैसी अशुचि लगी हो होती कभी न वह अपवित्र ।।६।। द्वेष रूप भवमय विकल्प की सभी तरंगों का हो त्याग। निर्मल स्वानुभूति हो उर में शुद्धात्मा से हो अनुराग ।।७।। कभी घृणा का भाव हृदय में मेरे स्वामी उदय न हो। कुत्सितभाव न आएँ उर में दूषित मेरा हृदय न हो।।८।। निर्विचिकित्सा अंग पालकर सम्यग्दर्शन पुष्ट करूँ। घृणा द्वेष ग्लानि को हर मिथ्यात्वभाव का कष्ट हरूँ।।९।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) निर्विचिकित्सा अंग पूजन कर करूँ स्वयं का प्रभु कल्याण। सम्यग्दर्शन की महिमा से पाऊँगा ध्रुवपद निर्वाण ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश। निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् हिंसा-झूठ-कुशील-परिग्रह सभी हुए बेकार । न्याय-नीति को जाना मैंने किया आत्म शृंगार ।। विषय-वासना की छलनाएँ हुई क्षणिक में क्षार । तीव्र कषायभाव का मैंने किया पूर्ण परिहार ।। कुमति पिशाचिन भागी घर से गाती सुमति मल्हार । आज विजय का पर्व अनूठा मंगलमय सुखकार ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73