Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 19
________________ रत्नत्रय विधान ७. श्री निर्विचिकित्सा अंग पूजन गिरते ही यह त्वरित सँभलता सप्तम षष्टम में रुकता। फिर पुरुषार्थ जगाता अपना निजस्वरूप के प्रति झुकता ।।६।। फिर अष्टम से क्षायिकश्रेणी पर तत्क्षण चढ़ जाता है। नवम दशम पा लाँघ ग्यारवाँ बारहवाँ पा जाता है।।७।। मोह क्षीण करता है तत्क्षण कर्म घातिया क्षय करता। झट तेरहवाँ पा लेता है केवलज्ञानलब्धि वरता ।।८।। फिर ये चौदहवें में जाता कर्म अघाति नाश करता। गुणस्थान से हो अतीत फिर सिद्ध स्वपद सादर वरता ।।९।। आज हुआ पक्षातिक्रान्त यह नयातीत हो गया चिदेश। सादिअनंतानंत काल तक निजरस पाएगा सिद्धेश ।।१०।। यदि रत्नत्रय की स्वभक्ति से चेतन होगा ओत-प्रोत । तो निश्चय ही एक दिवस पाएगा निजशिवसुख का स्रोत ।।११।। (वीर) निःकांक्षित अंग की पूजनकर हृदय हआ हे प्रभो प्रसन्न। सकल वांछाएँ क्षयकरके समकित से होऊँ सम्पन्न ।। रत्नत्रयमंडल विधान की पूजन का है यह उद्देश। निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिंक्षिपेत् (दोहा) निर्विचिकित्सा तीसरा, अंग प्रधान महान । पूजन करके हे प्रभो, करूँ कर्म अवसान ।। सम्यग्दर्शन की प्रभा, हरती भवदुःख क्लेश । आप कृपा से है प्रभो, धारूँ जिनमुनिवेश ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य निर्विचिकित्साअंग अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य निर्विचिकित्साअंग अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य निर्विचिकित्साअंग अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (चौपई) निर्मल जल स्वभाव मलहीन । हरता जगत रोग यह तीन ।। निर्विचिकित्सा अंग महान । करता निज-पर का कल्याण ।।१।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। निज चंदन शीतलगुण पूर्ण । भवाताप हरता सम्पूर्ण ।। निर्विचिकित्सा अंग महान । करता निज-पर का कल्याण ।।२।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । अक्षतगुण अनंत भंडार। करता है भवसागर पार ।। निर्विचिकित्सा अंग महान । करता निज-पर का कल्याण ।।३।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। ज्ञानपुष्प अनुपम अनमोल। कामबाण सब हरते तोल ।। निर्विचिकित्सा अंग महान । करता निज-पर का कल्याण ।।४।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । अनुभव रसमय निज नैवेद्य । क्षुधारोग हरते बन वैद्य ।। निर्विचिकित्सा अंग महान । करता निज-पर का कल्याण ।।५।। ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्साअंगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सप्ततत्त्व की श्रद्धा जागी जागी निज की प्रीत । अनंतानुबंधी को जयकर लिया विश्व को जीत ।। भेदज्ञान का वैभव पाया सुना आत्मसंगीत। स्व-पर विवेक जगा अंतर में परपरिणति भयभीत ।। इष्ट-अनिष्ट, सुहाती समता वस्तुस्वरूप विचार । आज विजय का पर्व अनूठा मंगलमय सुखकार ।। 18

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