________________
५. श्री निःशंकित अंग पूजन
(दोहा) यह निःशंकित अंग ही, है समकित का मूल। भावसहित पूजन करूँ, हो निज के अनुकूल ।।
(वीर) आत्मस्वभाव मोक्ष का कारण यह निःशंक श्रद्धा उर धार। यही मूल है आत्मधर्म का ये ही ले जाता भवपार ।। सकल कुशंकाओं से विरहित है निःशंकित अंग महान ।
स्वपरविवेकपूर्वक मैं भी करूँ आत्मा का श्रद्धान ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य निःशंकितांग अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य निःशंकितांग अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य निःशंकितांग अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
(ताटंक) निःशंकितजल की पा धारा । जन्मादिरोग नायूँ सारा ।।
सम्यग्दर्शन उर में लाऊँ। आनंद अतीन्द्रिय प्रभु पाऊँ।।१।। ॐ हीं श्री निःशंकितांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
निःशंकितचंदनतिलक लगा। संसारताप दूँ दूर भगा।
सम्यग्दर्शन उर में लाऊँ । आनंद अतीन्द्रिय प्रभु पाऊँ।।२।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वामीति स्वाहा।
निःशंकितअक्षतशालि मिलें। अन्तर्मन केनिजकमल खिलें।।
सम्यग्दर्शन उर में लाऊँ। आनंद अतीन्द्रिय प्रभु पाऊँ।।३।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री निःशंकित अंग पूजन
निःशंकितपुष्पसुगंध मिले। कामाग्नि नाश गुणशील झिले।।
सम्यग्दर्शन उर में लाऊँ। आनंद अतीन्द्रिय प्रभु पाऊँ ।।४।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
निःशंकितसुचरु सरस लाऊँ। चिर क्षुधाव्याधिको विनशाऊँ।।
सम्यग्दर्शन उर में लाऊँ। आनंद अतीन्द्रिय प्रभु पाऊँ ।।५।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
निःशंकितदीपप्रकाश करूँ। मिथ्यात्व मोहतम नाश करूं।
सम्यग्दर्शन उर में लाऊँ। आनंद अतीन्द्रिय प्रभु पाऊँ।।६।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
निःशंकितध्यान धूप लाऊँ। वसुकर्म नाश शिवपुर जाऊँ।।
सम्यग्दर्शन उर में लाऊँ। आनंद अतीन्द्रिय प्रभु पाऊँ ।।७।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
निःशंकितनिजतरुफल लाऊँ। ध्रुव श्रेष्ठ मोक्षफल प्रभुपाऊँ।।
सम्यग्दर्शन उर में लाऊँ। आनंद अतीन्द्रिय प्रभु पाऊँ।।८।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
निःशंकितअर्घ्य बनाऊँगा। पदवी अनर्घ्य प्रगटाऊँगा ।।
सम्यग्दर्शन उर में लाऊँ। आनंद अतीन्द्रिय प्रभु पाऊँ।।९।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । 卐 सात भय रहित सम्यग्दर्शन १. इहलोकभय रहित सम्यग्दर्शन
(गीतिका) इह लोक भय से ग्रसित प्राणी दुःखी ही रहते सदा। सतत आतंकित रहा करते जगत में सर्वदा ।। इहलोकभय को छोड़कर सम्यक्त्व का वैभव परख ।
पूर्ण निर्भय बन सदा को शद्ध आत्मस्वरूप लख।। ॐ ह्रीं श्री इहलोकभयरहितसम्यग्दर्शनाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
२. परलोकभय रहित सम्यग्दर्शन परलोकभय से जो ग्रसित हैं दुःखी रहते सर्वदा। सतत भय से डरा करते ज्ञान निज हरते सदा ।।