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रत्नत्रय विधान
श्री निःशंकित अंग पूजन
परलोकभय को छोड़कर सम्यक्त्व का वैभव परख।
तथा निर्भय बन सदा को शुद्ध आत्मा को निरख ।। ॐ ह्रीं श्री परलोकभयरहितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
३. मरणभय रहित सम्यग्दर्शन मरणभय से जो ग्रसित हैं दुःखी है जीवन सदा। मृत्यु से हैं सतत् आतंकित अरे वह सर्वदा ।। मरणभय को छोड़ दे बन जाएगा मृत्युंजयी।
शुद्ध निजवैभव निरख तू ज्ञान-दर्शनगुणमयी ।। ॐ ह्रीं श्री मरणभयरहितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
४. वेदनाभय रहित सम्यग्दर्शन वेदनाभय सताता है तुझे मूरख सर्वदा। सतत आतंकित हृदय है दुःखी है प्राणी सदा ।। वेदनाभय छोड़कर शुद्धात्म का वैभव परख ।
सतत निर्भय बन सुचेतन निजस्वभाव सदा निरख ।। ॐ ह्रीं श्री वेदनाभयरहितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
५. अरक्षाभय रहित सम्यग्दर्शन अरक्षाभय से ग्रसित है खोजता है अभयथल । सतत आतंकित हृदय में नष्ट करता आत्मबल ।। अरक्षाभय त्यागकर तू प्राप्त समकित शुद्ध कर।
सतत निर्भय बन सदा को आत्मज्ञान विशुद्ध धर ।। ॐ ह्रीं श्री अरक्षा भयरहितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
६.अगुप्तिभय रहित सम्यग्दर्शन ग्रसित मूढ़ अगुप्तिभय से गुप्त रहना चाहता। ज्ञान की अवहेलना कर मुक्त होना चाहता ।। छोड़ सर्व अगुप्तिभय को पूर्ण श्रद्धा हृदय धार।
सतत् निर्भय बन सदा को प्राप्त कर ले सुख अपार ।। ॐ ह्रीं श्री अगुप्तिभयरहितसम्यग्दर्शनाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
७. अकस्मातभय रहित सम्यग्दर्शन अकस्माती भय सताता सदा मिथ्यादृष्टि को। अकस्माती भय न होता कभी सम्यग्दृष्टि को ।।
अकस्मात महान भय तज प्राप्त कर आनंद अपार ।
सतत निर्भय हो सदा को आत्मश्रद्धा हृदय धार ।। ॐ ह्रीं श्री अकस्मात भयरहितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा) सात भयों को जीतकर, पाऊँ समकित शुद्ध । सप्ततत्त्व श्रद्धान कर, पाऊँ ज्ञान विशुद्ध ।। पूर्ण अर्घ्य अर्पण करूँ, निर्भय होकर देव ।
आप कृपा से हे प्रभो, पाऊँ सौख्य अमेव ।। ॐ ह्रीं श्री सप्तभयरहितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
महाऱ्या
(वीर) स्वपरज्ञानपति समदृष्टि ही होते हैं अत्यंत निःशंक। इनको रंच नहीं लगती है संशयादि विभ्रम की पंक।।१।। तत्त्वों में शंकादि दोष का अभाव ही निःशंकित अंग। नहीं कभी अणुभर भय होता तब होता यह निर्मल अंग ।।२।। करूणा, मैत्री, सजनता, धर्मानुराग, श्रद्धा बलवान । समता, उदासीनता, अपनी लघुता, वसुगुण युक्त महान ।।३।। तत्त्वभूत सत्यार्थ स्वरूप जानते हैं समकित धारी। संशय रहित स्वरूचि के स्वामी ही होते हैं अविकारी ।।४।। ऐसे समकित की रज भी पाऊँ तो धारूँ मस्तक पर । सप्त स्वरों की बजा बाँसुरी गाऊँ मैं समकित के स्वर ।।५।। अपनी आत्मा की निःशंक श्रद्धा करना ही निश्चय धर्म।
आत्मस्वरूप निःशंक जानना ही निःशंकित अंग का मर्म ।।६।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महाय॑ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(शार्दूलविक्रीडित) भाते जो निःशंक भावना वे एकत्वधन के धनी। पर से तो संबंध तोड़ करके निज में चले जाएंगे।। भवतट छोड़ आत्मतट पर आए स्वबल से प्रभो। करते हैं भगवान सिद्ध स्वागत एकत्वसम्राट का ।।१।।