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. आचारांग के उपधान अध्ययन को हम भगवान महावीर का सबसे प्राचीन जीवन ग्रंथ कह सकते हैं तो सूत्रकृतांग के वीर स्तुति अध्ययन को प्रभु महावीर की लोकातीत महिमा का काव्यात्मक, नीति काव्य या स्मृति काव्य भी कह सकते हैं। इन आगमों के स्वाध्याय से आज भी भगवान महावीर के अलौकिक पारदर्शी व्यक्तित्व के साथ साक्षात्कार-सा अनुभव करते हैं। उन शब्द चित्रों के भावात्मक रंगों में भगवान महावीर का मन भावन स्वरूप छविमान प्रतीत होता है।
आगम काल के पश्चात् तो महापुरुषों के जीवन चरित्र के रूप में स्मृति ग्रंथों की एक सुदीर्घ परम्परा ही चलती रही है। देश-काल के परिप्रेक्ष्य में उसके भिन्न-भिन्न रूप और भिन्न-भिन्न नाम रहे हैं।
वर्तमान में अभिनन्दन ग्रंथों व स्मृति ग्रंथों की एक परम्परा चल रही है। गुण-दोष की समीक्षा करने बैठे तो सभी पक्ष सापेक्ष होते हैं। परंपरा, परिपाटी, श्रद्धा गुणात्मक भी होती है और अनुकरणात्मक भी। श्रद्धा प्रबल होती है, वहाँ उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम भी चुना जाता है, इसलिए किसी भी परिपाटी को, श्रद्धा अभिव्यक्ति की किसी विधा या शैली को एकान्त गुणरूप या दोषपूर्ण कहना अनेकान्त दृष्टि की अवहेलना होगी। फिर भी व्यक्तित्व की गरिमा, उसकी व्यापकता, कृतित्व की विराटता और लोकोपकारिता आदि बिन्दुओं को दृष्टिगत रखना आवश्यक होता है।
प्रस्तुत उपक्रम एक परिपाटी का अनुकरण/अनुसरण नहीं है। न ही एक व्यक्ति की गरिमा का प्रश्न है। किन्तु प्रश्न है, उन हजारों-हजार भावुक हृदयों की श्रद्धाभिव्यंजना का तथा उस महापुरुष की लोकोपकारी सर्जना का जिसका प्रकटीकरण, जिसकी विज्ञापना जिनशासन की प्रभावना में सहायक बनेगी। अध्यात्म और नैतिक शक्ति के अभ्युदय में हाथ बँटायेगी। दर्शन और संस्कृति की सहज, सरल छवि रूपायित होगी...........
स्मृति ग्रंथ के पीछे व्यक्ति विशेष की गरिमा का प्रश्न नहीं, किन्तु व्यक्तित्व की महिमा का लोक व्यापी स्वरूप जुड़ना चाहिए। हमारा प्रयास रहा है, हम परम श्रद्धेय गुरुदेव के उज्ज्वल/अमर कृतित्व तथा लोकोपकारी व्यक्तित्व को जन-जन तक पहुँचाने में सफल हो सके, जो लोकभावना के रूप में युगों युग तक चिरजीवी बना रहेगा।
अनेक विद्वान मुनिवरों, विदुषी श्रमणियों तथा प्रज्ञाप्रतिभा श्रद्धावान श्रावकजनों ने अपनी-अपनी श्रद्धा भावना के अनुरूप इसमें सहयोग की पुष्पांजलियाँ अर्पित कर श्रद्धा के उस सूरज का अभिवादन किया है। साधना के उस समवेत शिखर की परिक्रमा की है। उपकारों के उस महामेघ के प्रति अहोभाव व्यक्त किया है, जिससे उन्हें स्वतः आत्मसंतुष्टि का अनुभव हो रहा है और साथ ही शासन प्रभावना का भी प्रसंग सफल हो रहा है।
मुझे विश्वास है यह ग्रंथ स्मृतियों की ग्रन्थि बाँधने के साथ ही आग्रहों की ग्रन्थि से मुक्त होने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। पाठकों को अधिक आत्मलक्ष्यी, सत्यानुसंधित्सु और सहज सरल जीवन शैली का प्रकाश स्तम्भ बन सकेगा। इसमें पूज्य गुरुदेव का साधनामय तपोमय जीवन का वह चित्र चित्रित है, जिसकी अनुशंसा ही नहीं, अनुसरण करने का भी भाव जाग्रत होगा। यह स्मृति ग्रन्थ युग-युग तक पथ प्रदर्शक बना रहेगा साधना का आलोक स्तंभ बनकर........ इति विश्वसीमि!
-आचार्य देवेन्द्र मुनि
जैन स्थानक लुधियाना (पंजाब).. दिनांक : २०/९/९४
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