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स्वकीय
अगर कोई सूरज की सुनहरी किरणों के स्पर्श से पुलकित पृथ्वी के कण-कण को देखकर सूरज को धन्यवाद देने का प्रयास करें, ........
समस्त संसार को आश्रय देने वाली पृथ्वी माता का, अमृतोपम जल वर्षाने वाले मेघ का और अपने रोम-रोम से प्राण वायु उत्सर्जित कर संसार को जीवन देने वाले वृक्षों का अभिवन्दन करें, उसकी विरुदावली गाये, उसे बधाई देवें तो यह एक हास्यापद बाल-प्रयास ही कहा जायेगा न?
इसी प्रकार सत्पुरुषों, सन्त पुरुषों के प्रति यदि हम मानवता के अभ्युदय हेतु किये गये उनके उपकारों और अवदानों के प्रति धन्यवाद, आभार दर्शन, श्रद्धा निवेदन करें तो यह सब उसी प्रकार का बाल-प्रयत्न ही होगा।
जिस प्रकार सूरज, पवन, जल और वृक्षों के कारण ही प्रकति का सन्तुलन और प्राणियों का जीवन है. उसी प्रकार सत्पुरुषों के कारण ही हमारी आध्यात्मिक सृष्टि का सन्तुलन बना हुआ है।
मानव सृष्टि का मूल आधार भावात्मक है और भावात्मक जगत में प्रेम, सद्भाव, नीति, सदाचार आदि तत्त्व ही नियामक होते हैं और इनका सन्देश मिलता है सन्तों, सत्पुरुषों के जीवन से!
सत्पुरुषों ने मानवता को अपने तप-त्यागमय जीवन से जो कुछ सहज भावपूर्वक दिया है वह हमें अत्यन्त कृतज्ञ भावपूर्वक स्वीकार्य है किन्तु सच यह है कि हम उनके प्रति चाहे जितने अभिवंदन करें, उनके उपकारों से ऋण मुक्त नहीं हो सकते!
सूरज, पृथ्वी, मेघ और वृक्षों की भाँति ही महापुरुषों के अनन्त उपकारों से कभी कोई ऋण मुक्त नहीं हो सका, चाहें उनकी स्तुति वन्दना की जायें, काव्य रचे जायें, लाखों श्रद्धांजलियाँ दी जाएँ। हाँ फिर भी मैं कहूँगा कृतज्ञता एक श्रेष्ठ भाव है, और यह मानव का स्वभाव भी है। इसी स्वभाववश हम अपने उपकारीजनों के प्रति वन्दन करते हैं। उनका स्मरण करते हैं और उनके प्रति हृदय से सहज स्फूर्त श्रद्धाअभिव्यक्ति करते हैं। इसमें हमारी मनः संतुष्टि है, आत्म-तोष है।
महापुरुषों की स्मृतियों को मन के चिन्मय कोष में सहेजकर रखना, उनकी वाणी को जीवन को दर्पण में प्रतिबिम्बित करना, उनकी कृतियों को स्मृतियों के स्वर्ण पट्ट पर उत्कीर्ण करना इसी का नाम है-स्मृति ग्रन्थ।
स्मृति ग्रन्थ-एक स्मृति कोष होता है। यह युग पुरुषों के अमर कृतित्व को भावों के ताम्र-कलश में भरकर महाकाल के कठोर प्रवाह से सुरक्षित रखने का श्रद्धासिक्त प्रयत्न है। स्मृति कलश, कालजयी न सही, पर कालातीत अवश्य होता है।
चिरकाल से कृतज्ञ मानव मनीषा द्वारा ऐसे स्तुत्य स्मरणीय प्रयास होते रहे हैं। ग्रन्थों के ताम्र-कलशों में महापुरुषों की स्मृतियों की धरोहर सुरक्षित रखने का प्रयत्न होता रहता है।
जैन परम्परा पर दृष्टिपात करें तो आचारांग सूत्र का नवम अध्ययन और सूत्रकृतांग सूत्र का छठा अध्ययन शायद अपने समय का सबसे पहला स्मृति ग्रन्थ कहला सकता है। जिसमें आर्य सुधर्मा द्वारा श्रमण भगवान महावीर की तपोदीप्त जीवनचर्या का आँखों देखा वर्णन और उनके दिव्यातिदिव्य महतो महीयान् व्यक्तित्व का अत्यन्त भावविभोर करने वाला शब्द चित्र अंकित है। उस वर्णन का एक-एक शब्द आत्मा को स्पन्दित करता है। एक-एक वचन भाव लालित्य से मन को मोह लेता है।