Book Title: Purusharthsiddhyupay Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni Publisher: Swadhin Granthamala Sagar View full book textPage 3
________________ : .. ......... - .: .. ............................................................:..:.::.:::.. पुरुषार्थसिधपाय अनेक कारण साथ रहे है, अधिक क्या लिखा जाय | अकेले अछे लेविलमासे दवाई नहीं बिकती, किन्तु गुणसे विकती है यह नियम है अस्तु । निरूपण-शैली इस अन्यको कथनशैली एवं निर्माणली अत्यन्त अपूर्वताको लिये हुए है, ऊपरी दृष्टि से तो यह कहा जाता है कि यह मुख्यतया श्रावकाधारका ग्रन्थ है, इसमें पेश्तर अणुब्रतोंका और उनके पालक श्रावकोंका तथा पश्चात् महावतोंका और उनके पालक मुनियोंका भी संक्षेपमें वर्णन किया गया है । अतएव यह गन्ध आचारग्रन्थ मालुम पड़ता है। इसी तरह इसका वर्णन एक निश्त्तयकी दृष्टिले या एक व्यवहारदृष्टि ( नय) से किया गया है इत्यादि, जो भ्रम है । इस ग्रन्थमें निश्चय और व्यवहारकी परस्पर संगति बैठालते हुए रलश्रयका यथार्थ वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ वारीकोसे विचार किया जाय तो एक ऐसा अमितीय लक्षणग्रन्थ है, जो साथ २ लक्ष्यको भी बताता जाता है। अतएव इसनी सानीका दूसरा ग्रन्थ देखने में नहीं आता इत्यादि। इसके.सिवाय यह ग्रन्थ तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी झली है. इसके द्वारा कठिनसे कठिन ताला या प्रन्धि खुल सकती है, में ऐसी क्षमता है। अनादिकालसे व्यवहारमें भूला हुआ जीव किस प्रकार अमानी बन रहा है, एवं अधिर्वचनीय असीमित दुःख भोग रहा है ? उसके उद्धार के लिये प्रारंभसे ही निश्चय और व्यवहारका ज्ञान तथा दोनोंको संगति और हेय-उपादेयता बतलाई गई है, अर्थात् भूमिकाशुद्धिपूर्वक तत्वोंका निर्णय होनेसे ही जीवका उद्धार हो सकता है, अन्यथा नहीं, चाहे वह कितना ही उपाय क्यों न करे, सब व्यर्थ है । साध्यको सिद्धि नहीं कर सकता ) । अरे ! जो जोच ( प्राणी ) अपनेको भी यथार्थ न समझे वह फैसे संसारसे पार हो सकता है ? जब उसको अपना सच्चा ज्ञान हो और. यह समझे कि मैं अभी संसारसमुद्रौ गोता लगा रहा हूं, लेकिन अब इससे पार होना चाहता हूँ तथा उसका सही उपाय ( मागं ) यह है, तभी वह वैसा उधम या पुरुषार्थ करनेसे पार हो सकेंगी । यह खुलासा है, इस सन्भमें मुख्थ-गौणरूपसे निश्कर-व्यवहारका कथन है, जिसको स्याब्रादनय या शैली कहा जाता है । पाठक, एकबार अवश्य अवलोकन-मनन करें, ऐसी प्रार्थना है, किंबहुना । आभार-प्रदर्शन इस ग्रन्थके प्रकाशनमें प्रियमित्र डा. पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य, बनारसवालोंका पर्याप्त सहयोग रहा है । अतएव हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। उन.पं. जी समाजके प्रसिद्ध विद्वान एवं कई पुस्तकोंके लेखक और अनुवादक हैं । वर्तमानमें श्री ग० वर्षी जैन सन्यमालाके मंत्री हैं। अधिक क्या कहा जाय वे वर्तमान समाजके उदीयमान प्रकाशमय ध्रुवतारा हैं । श्री महाबीर प्रेस, भैलुपुर बनारसके मालिक श्री पं० बाबूलालजी फागुल्लके भी हम आभारी है, जिन्होंने अपने प्रेसमें सुन्दरताके साथ इसे छापा है । आपका सौहार्द हमेशा याद रहेगा। जो कुछ अशुद्धिर्या .......... -लोक म० १३५ में कहा है कि रस्मनयरूप मोशमार्ग भवर्सला इ समझना इसका ६श्य है इत्यय त्रितयात्मनि मार्ग मोक्षस्व वे सहितकामाः । अनुपरत प्रयतन्ते प्रयान्ति ते मुक्तिमाचिरण ।। १३५ ॥ wwewseemaNSATHEMATIMEPage Navigation
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