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१० प्रेक्षाध्यान
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प्रक्रिया कायिक स्थिरता • सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे।
कायस्स विउस्सग्गो छट्ठो सो परिकित्तिओ।। उत्तरायणाणि ३०।३६ सोने, बैठने या खडे रहने के समय जो भिक्षु काया को नही हिलाता-डुलाता, उसके काया की चेष्टा का जो परित्याग होता है, उसे
व्युत्सर्ग कहा जाता है। वह आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार है। • मा मे एयउ काओत्ति, अचलओ काइअ हवइ झाण।
आव० नियुक्ति १४८८ "मेरा शरीर कपित न हो"-ऐसा सोचकर जो निश्चल हो जाता है
उसके कॉयिक ध्यान होता है। खड़े होकर, बैठकर एवं लेटकर • उस्सिअनिस्सन्नग निवन्नगे अ।
आव० नियुक्ति १४७५ कायोत्सर्ग तीन प्रकार से होता है-खडे होकर, बैठकर एव लेटकर । स्व-दोष दर्शन एवं सूक्ष्म श्वास-प्रश्वास
काउ हिअए दोसे, जहक्कम जाव ताव पारेइ।। ताव सुहमाणुपाणू, धम्म सुक्क च झाइजा।। आव० नियुक्ति १५१४ स्व-दोषो को हृदय मे धारण कर, यथाक्रम उनकी आलोचना करे, जब तक गुरु कायोत्सर्ग सम्पन्न न करे, तब तक आन-प्राण (श्वास-प्रश्वास)
को सूक्ष्म कर धर्म्य-शुक्ल ध्यान करे। श्वासोच्छ्वास का परिणाम • साय सय गोसऽद्ध तिन्नेव सया हवति पक्खमि । पच य चाउम्मासे अट्टसहस्स च वारिसए।।
आव० नियुक्ति १५४४ सायकालीन कायोत्सर्ग मे श्वासोच्छ्वास का परिणाम सौ, प्रात कालीन