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तृतीय खण्ड।
[११ . उपमई सम्बन्धोंका त्याग करे तथा अपने स्वरूपाचरण रूप निश्चय चारित्रमें व उसके सहकारी व्यवहार चारित्रमें मंग या दोष न लगाये । यदि कोई प्रमादसे दोष होजावे तो उसके लिये प्रायश्चित्त लेकर अपना दोष दूर करता रहे । जब निश्चय व्यवहार चारित्रमें परिपक्व होनावे तब अन्य अपने समान चारित्रके धारी साधुओंके संगमें अपने गुरुकी आज्ञा लेकर पहलेकी तरह निर्दोष चारित्रकी सम्हाल रखता हुआ विहार करे । तथा जब एकाविहरी होने योग्य होजावे तब गुरुकी आज्ञा लेकर अकेला विहार करते हुए साधुका. यह कर्तव्य है कि स्वयं निश्चय चारित्रको पाले और शास्त्रोक्त व्यवहार चारित्रमें दोष न लगावे । इस तरह मुनि पदकी महिमाको प्रगट करता हुआ भक्तजन अनेक श्रावकादिकोंके मनमें आनन्द पैदा करावे और निरन्तर अपने चारित्रकी सहकारिणी इन पांच भावनाओंको इस तरह भावे-- __(१) तप ही एक सार वस्तु है जैसा सुवर्ण अग्निसे तपाए जानेपर शुद्ध होता है वैसे आत्मा इच्छा रहित होता हुआ आत्मज्ञानरूपी अग्निसे ही शुद्ध होता है । (२) शास्त्रज्ञान विना तत्वका विचार व उपयोगका रमण नहीं होसक्ता है इसलिये मुझे शास्त्रज्ञानकी वृद्धि व निःसंशयपनेमें सदा सावधान रहना चाहिये (३) आत्मवीर्यसे ही कठिन २ तपस्या होती व उपसर्ग और परीपहोंका सहन किया जाता इससे मुझे आत्मबलकी वृद्धि करना चाहिये तथा आत्मबलको कभी न छिपाकर कर्म शत्रुओंसे युद्ध करनेके लिये वीर योद्धाके समान अभेद रत्नत्रयरूपी खड़गको चमकाते व उससे उन कर्मोका नाश करते रहना चाहिये । (४) एकत्त्व ही सार