________________
१६६] श्रीप्रवचनसारटीका। नहीं होता किन्तु शारीरिक क्रिया करे व न करे उस क्रियाके करनेका संकल्प करनेवाला फर्ता होता है । इसी सिद्धांतको ध्यान में रखते हुए अचार्य कहते हैं कि जैन साधुओंको न जिह्वाइंद्रियके स्वादवश न शरीरको पृष्ट करनेके वश भोजनकी इच्छा होती है, न नगर बनादिकी सैर करनेके हेतुसे उनका विहार होता है । वे इद्रियोंकी इच्छाओंको बिलकुल छोड चुके हैं इसी लिये उनके सदा ही अनशन अर्थात् उपवासरूपी तप है- क्योंकि चार प्रकारके भोजनकी इच्छा न करना ही अनशन तप है । इसी ही तपकी पुष्टिका साधुगण सदा उद्यम रखते है, क्योंकि शरीर द्वारा ध्यान होता है । इस लिये शरीरको बनाए रखनेके हेतुसे वे निर्दोष भोजन भिक्षावृतिसे जो श्रावकने दिया उसे विना स्वादके रागके लेलेते हैं तथा ममत्व भाव हटानेके लिये वे एक स्थानपर न ठहरकर विहार करते रहते हैं । इसी हेतुसे ऐसे निस्टही साधु अहारविहार करते हुए भी न आहार करनेवाले न विहार करनेवाले निश्चयसे होते हैं। वे निरंतर निज आत्मीक रसके आस्वादी व निज आत्माकी शुद्ध भूमिकामें विहार करनेवाले होते हैं। ऐसे साधु किस तरह धर्मक्रियाके सिवाय अन्य क्रियाओंको नहीं चाहते हैं उसका स्वरूप यह है:जिणवयणमोहसमिणं विसयसुहविरयणं अमिदभूदं । जरमरणवाहिवेयण खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ ८४१॥ जिणवयणणिच्छदमदी अवि मरणं अन्भुइँति सप्पुरिसा । ण य इच्छंति अकिरियं जिणवयण वदिक्कम कार्दु ॥७६॥ .
भावार्थ-साधुगण जिनवाणीरूपी औषधिको सदा सेवते हैं जो विषयोंके सुखोंकी इच्छाको हरनेवाली है, अमृतमई है, जरा