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श्रीप्रवचनसारटीका ।
चाहिये - साधुओं को स्त्रियोंकी संगति न रखनी चाहिये | कन्या हो, विधवा हो, रानी हो, स्वेच्छा चारिणी हो, साध्वी हो कोई भी स्त्री है । यदि साधु उनके साथ एकांतमें क्षण मात्र भी सहवास करें व वार्तालापादि करे तो अपवाद अवश्य प्राप्त होजाता है । . मूलाचार के समयसार अधिकारमें कहा है---
विदभरिदधड सरित्यो पुरिसो इत्थो वलंतर्भाग्गसमा । तो महिलेयं दुक्का पट्ठा पुरिसा सिवं गया इयरे ॥१००॥
भावार्थ- पुरुष तो घीसे भरे हुए घटके समान है व स्त्री जलती हुई अग्नि समान है । ऐसी स्त्रीकी संगति करनेवाले, उनके साथ वार्तालाप व हास्यादि करनेवाले अनेक पुरुष नष्ट हो गए है । जिन्होंने स्त्रियोंकी संगति नहीं की है, वे ही मोक्ष प्राप्त हुए हैं ।
चंडो चवलो मन्दो तह साहू पुट्ठिमंसपडिसेवी । गारवकसायबहुलो दुरासओ होदि सो समणो ॥ ६४ ॥ वेज्ञावच्चविहोणं विणयविहूणं च दुस्सदिकुसोलं । समण विरोगहोणं सुसजमो साधु ण सेविज ॥ ६५ ॥ दमं परपरिवादं पिसुणन्तण पापमुत्तपडिलेवं । चिरपन्चदपि मुणो आरंभजुदं णं सेविज ॥ ६६ ॥ चिरपत्रइदं वि मुणी अधम्मं असंपुढं णोचं । लोइय लोगुत्तरियं अयाणमाणं विवजेज ॥ ६ ॥ आयरियकुलं मुखाविहरदि समणो य जो दु एगागी । पण य गेहदि उवदेसं पावस्लमणोत्ति वुञ्चदि दु ॥ ६८ ॥ आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्लत्तणं अकाऊण । fist ढुंढारिओ, निरंकुसो मत्तहत्थिन्व ॥ ६६ ॥ वीदेहवं. णिचं दुजणवयणा पलोट्टजिव्भस्स । चरणयरणिग्गमं मित्र वयणकयारं वहतस्स ॥ ७१ ॥