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तृतीय खण्ड ।, '
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हरियन्त्तणमुवणय जो मुणी आगमं ण याणंतो । अप्पाणं पि विणासिय अण्णे वि पुणेो विणासेई ॥ ७२ ॥ भावार्थ - इतने प्रकारके साधुओंसे संगति न करनी चाहिये । जो विष वृक्षके समान मारनेवाला रौद्रपरिणामी हो, वचन आदि क्रियाओं में चपल हो, चारित्रमें आलसी हो, पीठ पीछे चुगली करनेवाला हो, अपनी गुरुता चाहता हों, कषायसे पूर्ण हो ॥ ६४ ॥ दुःखी मांदे साधुओंकी वैयावृत्त्य न करता हो, पांच प्रकार विनय रहित हो, खोटे शास्त्रोंका रसिक हो, निन्दनीय आचरण करता हो, नग्न होकर भी वैराग्य रहित हो ॥ ६५॥ कुटिल वचन बोलता हो, पर निंदा करता हो, चुगली करता हो, मारणोच्चाटन वशीकरणादि खोटे शास्त्रोंका सेवनेवाला हो, बहुत कालका दीक्षित होनेपर भी आरम्भका त्यागी न हो, ॥६६॥ दीर्घकालका दीक्षित होकर भी जो मिथ्यात्व सहित हो, इच्छानुसार वचन बोलनेवाला हो, नीचकर्म करता हो, लौकिक और पारलौकिक धर्मको न जानता हो तथा जिससे इसलोक परलोकका नाश हो ॥६७॥ जो आचार्यके संघको छोड़कर अपनी इच्छासे अकेला घूमता हो व जिसको शिक्षा देनेपर भी उस उपदेशको ग्रहण नहीं करता हो ऐसा पाप श्रमण हो, जो पूर्व में शिप्यपना न करके शीघ्र आचार्य पना करने के लिये घूमता हो अर्थात् जो मत्त हाथीके समान पूर्वापर विचार रहित ढोढाचार्य हो ||६९|| जो दुर्जनकेसे वचन कहता हो, आगे पीछे विचार न कर ऐसे दुष्ट बचन कहता हो जैसे नगरके भीतरसे कूडा बाहर किया जाता हो ॥ ७१ ॥ तथा जो स्वयं आगमको न जानता हुआ अपनेको आचार्य थापकर अपने आत्माका और दूसरे आत्माओंका नाश करता हो ॥ ७२ ॥