Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 359
________________ ३४०] श्रीप्रवचनसारटोका । उत्कृष्ठता प्राप्त करली है, वे ही साधु सर्व गाढ़ बंधे हुए कर्मीको क्षयकर सर्व क्लेशसे रहित होते हुए व जन्मनरा मरणकी उपाधिसे सदाके लिये छूटते हुए अनंत ज्ञानादिकी प्रगटतारूप सिद्धिपनेकी अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं। श्री कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैंमानस्तंभ दृढं भक्त्वा लोभादि च विदार्य धै। मायावल्ली समुत्पाट्य क्रोधशत्रु निहन्य च ॥ १६४ ॥ यथाख्यातं हितं प्राप्य चारित्र ध्यानतत्परः ।। करणां प्रक्षयं कृत्वा प्राप्नोति परमं पदम् ॥ १५ ॥ भावार्थ-जो ध्यान में लीन साधु दृढ़ मानके खंभेको उखाड़ कर, लोभके पर्वतको चूर्ण चूर्णकर, मायाकी वेलोंको तोड़कर तथा क्रोध शत्रुको मारकर यथाख्यात चारित्रको प्राप्त हो जाता है वही कर्मोका क्षयकर परमपदको प्राप्त करलेता है ॥ ९६ ॥ ___ उत्थानिका-आगे आचार्य फिर दिखलाते हैं कि शुद्धोपयोग स्वरूप जो मोक्षमार्ग है वही सर्व मनोरथको सिद्ध करनेवाला है मुद्धस्स य सामण्णं भणियं मुद्धस्स दसणं णाण । सुद्धस्स य णिव्वाणं सोचिय सिद्धो णमो तस्स ॥९॥ शुद्धस्य च श्रामण्यं भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम् । शुद्धस्य च निर्वाणं स एव सिद्धो नमस्तस्मै ॥ ६ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(सुद्धस्स य सामण्ण) शुद्धोपयोगीके ही साधुपना है, ( सुद्धस्स देसणं णाणं भणियं ) शुद्धोपयोगीके ही . दर्शन और ज्ञान कहे गए हैं (सुद्धस्स य णिव्वाण) शुद्धोपयोगीके ही निर्वाण होता है (सोच्चिय सिद्धो) शुद्धोपयोगी ही सिद्ध भगवान हो जाता है (तस्स णम) इससे उस शुद्धोपयोगीको नमस्कार हो

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