Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 369
________________ ३५००] श्रीप्रवचनसार टोका। जानता है वही निर्विकल्प समाधिके प्रस्ताव में या अवसर में भी निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञानसे भी परमात्माको जानता है अर्थात् अनुभव करता है । फिर शिप्यने निवेदन किया कि भगवन् मैंने आत्मा नामा द्रव्यको समझ लिया अब आप उसकी प्राप्तिका उपाय कहिये ? भगवान कहते हैं-सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वभाव जो अपना परमात्म तत्त्व है उसका भले प्रकार श्रद्धान, उसीका ज्ञान व उसीका आचरण रूप अभेद या निश्चय रत्नत्रय - मई जो निर्विकल्प समाधि उससे उत्पन्न जो रागादिकी उपाधि से रहित परमानंदमई एक स्वरूप सुखामृतं रसका स्वाद उसको नहीं अनुभव करता हुआ जैसे पूर्णमासीके दिवस समुद्र अपने ' जलकी तरंगों से अत्यन्त क्षोभित होता है; इस तरह रागद्वेष मोहकी कल्लोलोंसे यह जीव जबतक अपने निश्चल स्वभावमें न ठहरकर क्षोभित या आकुलित होता रहता है तबतक अपने शुद्ध आत्मस्वरूपको नहीं प्राप्त करता है । वही जीव जैसे वीतराग सर्वज्ञका कथित उपदेश पाना दुर्लभ है, इस तरह एकेंद्रिय, इंद्रिय, तेंद्रिय, चौद्रिय, पंचेंद्रिय संज्ञी पर्याप्त, मनुष्य, उत्तम देश, उत्तम कुल, उत्तमरूप इंद्रियोंकी विशुद्धता, बाधारहित आयु श्रेष्ठ बुद्धि, सच्चे धर्मका सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, उसका श्रद्धान करना, संयमका पालना, विषयोंके सुखसे हटना, क्रोधादि कपायोंसे वचना आदि परम्परा दुर्लभ सामग्रीको भी किसी अपेक्षासे काकताली न्यायसे प्राप्त करके सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञान केवल दर्शन स्वभाव अपने परमात्मतत्वके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व आचरणरूप अभेद रत्नत्रयमई निर्विकल्प

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