Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 373
________________ ३५४ ] श्रीप्रवचनसारटीका । इस चारित्रतत्त्वदापिकाका संक्षेप भाव। इस तृतीय भागमें महारान कुन्दकुन्दाचार्यने पहले भागमें पांचमी गाथाके अन्दर "उवसंपयामि सम्मं, जत्तो णिव्वाण संपत्ती" अर्थातू-मैं साम्यभावको प्राप्त होता हूं, जिससे निर्वाणकी प्राप्ति होती हैऐसी प्रतिज्ञा करी थी। जिससे यह भी दिखलाया था कि निर्वाणका उपाय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान पूर्वक रागद्वेषादिका त्यागकर वीतराग भावरूप समताकी शरणमें जाना है। अब इस अधिकारमें पहले दो अधिकारोंमें सम्यग्ज्ञानकी तथा सम्यक्त और ज्ञानके विषयभूत छः द्रव्य रूप ज्ञेय पदार्थोकी व्याख्या भले प्रकार करके उस चारित्रका वर्णन किया है जिससे समताभावका लाभ हो; क्योंकि मुख्यतासे शुद्धोपयोगरूप अभेद रत्नत्रयकी प्राप्ति ही चारित्र है, जिसका भले प्रकार होना मुनिपढ़में ही संभव है। इमलिये प्रथम ही आचाश्न यह दिखलाया है कि गृहस्थको साधु होनेके लिये अपने सर्व कुटुम्बसे क्षमा कराय निराकुल हो किसी तत्त्वज्ञानी आचार्यके पास जाकर दीक्षा लेनेकी प्रार्थना करनी चाहिये । उनकी आज्ञा पाकर सर्व वस्त्राभूषणादि परिग्रहका त्याग कर केशोंको लोंचकर सर्व ममतासे रहित होकर अपना उपयोग शुद्धकर अठाईस मूलगुणोको धारना चाहिये तथा सामायिक चारि का अभास करना चाहिये । यदि चारित्रमें कोई अतीचार लग जावे तो उसकी आलोचना करने हुए. गुरुसे प्रायश्चित लेकर अपनी शुद्धि करनी चाहिये । तथा विहारादि शियाओंमें यत्ताचार पुर्वक

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