Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 345
________________ ३२६] श्रीप्रवचनसारटोका । . अन्वय सहित सामान्यार्थ-(णिग्गथं पव्वइदो) निग्रंथ पदकी दीक्षाको धारता हुआ (जदि) यदि (एहिगेहि कम्मेहिं) लौकिक व्यापारोंमें ('वट्टदि) वर्तता है (सो) वह साधु (संजमतवसंपजुतोवि) संयम और तप सहित है तो भी (लोगिगोदि मणिदो) लौकिक साधु है ऐसा कहा गया है। विशेषार्थ-निसने वस्त्रादि परिग्रहको त्यागकर व मुनि पदकी दीक्षालेकर यति पद धारण करलिया है ऐसा साधु यदि निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयके नाश करनेवाले तथा अपनी प्रसिद्धि, बड़ाई व लाभके बढ़ानेके कारण ज्योतिष कर्म, मंत्र यंत्र, वैद्यक आदि लौकिक गृहस्थोंके जीवनके उपायरूप व्यापारोंके द्वारा वर्तन करता है तो वह द्रव्य संयम व द्रव्य तपको धारता हुआ भी लौकिक अथवा व्यवहारिक कहा जाता है। भावार्थ-मुनि महाराजका कर्तव्य मुख्यतासे निश्चय रलत्रयकी एकतारूप साम्यभावमें लीन रहता है । तथा यदि वहां उपयोग न ठहरे तो शास्त्र विचार, धर्मोपदेश, वैय्यावृत्त्य आदि शुभोपभोगरूप कार्योंको करना है। ध्यान व अध्ययनमें अपने कालको विताना साधुका कर्तव्य है | यदि कोई साधु गृहस्थोंक समान ज्योतिष कर्म किया करे, जन्मपत्रिका बनाया करे, वैद्यक कर्म द्वारा रोगियोंको औषधियें बताया करे, लौकिक कार्यों के निमित्त मंत्र यंत्र किया करे, अथवा कृषि, व्यापार आदि कार्योंमें सम्मति दिया करे व कराया करे तो वह साधु बाहरमें चाहे मुनिके अठाईस मूलगुण पालता है व बारह प्रकार तप करता है परन्तु उसका अंतरङ्ग लौकिक वासनाओंसे भर जाता है जिससे वह

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