________________
Anand
३१४] श्रीप्रवचनसारटोका । आदि विनयकी इच्छा करता है, वह स्वयं निश्चय व्यवहार रत्नत्रयरूपी गुणसे हीन होता हुआ किसी अपेक्षा अनन्त संसारमें भ्रमण करनेवाला होता है। यहां यह भाव है कि यदि कोई गुणाधि. कसे अपने विनयकी वांछा गर्वसे करे, परन्तु पीछे भेदज्ञानके वलसे अपनी निन्दा करे तो अनन्त मंसारी न होवे अथवा कालान्तरमें भी अपनी निन्दा करे तौमी दीव संसारी न होवे, परन्तु जो मिथ्या अभिमानसे अपनी बड़ाई, पूजा व लाभके अर्थ दुराग्रह या हठ धारण करे सो अवश्य अनन्तसंसारी हो जावेगा।
भावार्थ-यहां भी आचार्यने श्रमणाभासका स्वरूप बताया है। कोई २ साधु ऐसे हों जो स्वयं रत्नत्रय धर्मके साधनमें शिथिल हों और गर्व यह करें कि हमको साधु जानके हमसे अधिक गुणधारी भी हमको नमस्कार करें, तो ऐसे साधु किसी तरह साधु नहीं रह सक्ते । उनके परिणामोंमें मोक्ष मार्गकी अरुचि तथा मानकी तीव्रता हो जानेसे वे साधु निश्चय व्यवहार साधु धर्मसे भूष्ट होकर सम्यग्दर्शनरूपी निधिसे दलिद्री होते हुए अनंतानुबंधी कषायके वशीभूत हो दुर्गतिमें जा ऐसे भ्रमण करते हैं कि उनका संसार में भ्रमण अभव्यकी अपेक्षा अनंत व भव्यकी अपेक्षा वहुत दीर्घ होजाता है। वास्तवमें साधु वही होसक्ता है निमको मान अपमानका, निंदा बड़ाईका कुछ भी विकल्प न हो-निरन्तर समताभावमें रमण करता रहता हुआ परम वीतरागतासे आत्मीक आनंदके रसको पान करता है और आप धर्मात्माओंका सेवक होता हुआ उनका. उपकार करता रहता है। केवल द्रव्यलिंग साधुपना नहीं है। जहां भाव साधुपना है वहीं