Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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तृतीय खण्ड। [ ३१५ सच्चा साधुपना है । भाव विना बाहरी क्रिया फलदाई नहीं होसक्ती है । जैसा भावपाहुड़में स्वामीने कहा है:
भावविसुद्धणिमित्तं वाहिरगंथस्स कोरए चाओ। वाहिरचाओ विहलो थमंतरगंथजुत्तस्ल ॥३॥ भावरहिओ ण सिज्माइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडोओ। अम्मतराइ वहुसो लंवियहत्थो गलियवत्थो ॥ ४ ॥ परिणामम्मि असुद्धे गथे सुवेइ वाहरे य जई। वाहिरगंथचाओ भावविह्वणस्स किं कुणई ॥५॥ जाणहि भावं पढमं कि ते लिंगेण भावरहिएण । पंथिय सिवपुरिपंथं जिणउवट्ठ पयत्तेण ॥ ६॥ भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे । गहिउज्झियाई बहुसो वाहिरणिग्गंथरूवाई ॥ ७ ॥
भावार्थ-भावोंकी विशुद्धताके लिये ही बाहरी परिग्रहका त्याग किया जाता है । जिसके भीतर रागादि अभ्यंतर परिग्रह विद्यमान है उसका बाहरी त्याग निर्फल है। यदि कोई वस्त्र त्याग हाथ लम्वेकर कोड़ाकोड़ी जन्मों तक भी तप करे तौभी भाव रहित साधु सिद्धि नहीं पासक्ता । जो कोई परिणामोंमें अशुद्ध है और बाहरी परिग्रहोंको त्यागता है-भाव रहितपना होनेसे बाहरी ग्रन्थका त्याग उसका क्या उपकार कर सका है । हे मुने! भावको ही मुख्य जान, इसीको ही जिनेन्द्रदेवने मोक्षमार्ग कहा है | भाव रहित भेषसे क्या होगा ? हे सत्पुरुष ! भाव रहित होकर इस जीवने इस अनादि अनन्त संसारमें वहुतंसे वाहरी निग्रंथरूप बारवार ग्रहण किये हैं और छोड़े हैं। और भी कहा है
भावेण होइ णग्गो वाहिरलिंगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीय णियरं णासइ भावेण दन्वेण ॥ ५४॥

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