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श्रीप्रवचनसारटोका |
मात्र शरीररूपी गाड़ीको चलानेके लिये उसके पहियोंमें तेल के समान भोजनदान देकर अपना मोक्ष पुरुषार्थ साधते हैं । कहा है-
सिङ्गो णिरारम्भो मिताचरियाए सुद्धभावो य । एगो कार दो सव्वगुणड्ढो हवे समणो || १००० ॥
भावार्थ - जो अन्तरङ्ग बहिरङ्ग सर्व मूर्छा के कारणमई परिग्रहसे रहित हैं, जो असि मसि आदि व पाचन आदि आरंभोंसे रहित हैं, जो भिक्षा चर्या में भी शुद्ध ममता रहित भावके धारी हैं व जो एकाकी ध्यान में लीन रहते हैं वे ही साधु सर्व गुणधारी होते हैं।
भिक्खं वकं हिययं सोधिय जो चरदि णिच्व सो साहू । एसो खुद साहू भणिओ जिणसासणे भयवं । १००४
जो साधु नित्य भिक्षा, वाक्य व मनको शुद्ध रूपसे व्यवहार करते हुए आचरण करते हैं वे ही अपने स्वरूपमें स्थित सच्चे साधु हैं ऐसा भगवानने जिनशासन में कहा है ।
श्री कुन्दकुन्द भगवानने बोघपाहुड़ में मुनिदीक्षाका यह स्वरूप दिखाया है:
णिण्णेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिन्वियार णिकलुसा । णिभय णिरासभावा पञ्चजा एरिसा भणिया ॥ ५० ॥
भावार्थ-मुनि महाराजकी दीक्षा ऐसी कही गई है जिसमें किसीसे नेह नहीं होता, जहां कोई लोभ नहीं होता, किसीसे मोह नहीं होता, जहां कोई विकार, कलुषता, भय नहीं होते और न किसी प्रकारकी परद्रव्यकी आशा होती है । वास्तवमें ऐसे साधु ही शरीर में ममत्व न करके योग्य आहार विहारके कर्ता होते हैं ॥ ४६ ॥