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तृतीय खण्ड ।
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है । इसलिये साधुओंके लिये मुख्य चक्षु आगमका ज्ञान है । विना शास्त्रोपदेशके वे सूक्ष्म दृष्टिसे जीव अजीवके भेदको नहीं जान सक्ते हैं, और न वे उस स्वसंवेदनज्ञानकी प्राप्ति कर सक्ते हैं जो साक्षात् मुक्तिका कारण है। यहांपर दृष्टांत दिये हैं कि जैसे एकेंद्रिय जीव स्पर्शन इंद्रियसे, डेंद्रिय जीव स्पर्शन और रसना दो इंद्रियोंसे, तेंद्रिय जीव स्पर्शन, रसना व प्राण ऐसी तीन इंद्रियोंसे, चौन्द्रिय जीव स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु इन चार इंद्रियोंसे व पंचेंद्रिय असैनी कर्ण सहित पांचों इंद्रियोंसे व सैनी पंचेंद्रिय जीव पांच इंद्रिय और मन छहोंसे जानते तथा देवगण मुख्यतासे दूरवर्ती व सूक्ष्म पदार्थोंको अवधिज्ञानसे जानते हैं और परम परमात्मा अरहंत और सिद्ध अपने सर्व आत्म प्रदेशोंमें प्रगट केवलज्ञान और केवलदर्शनसे जानते हैं वैसे साधुगण आगमज्ञानसे पदार्थोंको जानते हैं । शास्त्रज्ञान ही बुद्धिको खोल देता है, चित्तको आत्म चिंतनमें रत रखता है । यही चारित्रके पालनमें जीव रक्षाका मार्ग बताता है । इससे साधुको शास्त्राभ्यास साधन कभी नहीं छोड़ना 1 चाहिये । कहा है:
गाणं पयास तवो सोधओ संजमो य गुत्तियरो । तिण्हं पि य स जोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो ॥८६६॥ णिजावगो य णाणं वादो भाणं चरित णावा हि । भवसागरं तु भविया तरंति तिहिसण्णिपाचेण ॥ ६॥
भावार्थ - मोक्ष मार्गी के लिये ज्ञान पदार्थोंके स्वरूपको प्रकाश करनेवाला है । ध्यान रूपी तप कर्मोंसे आत्माको शुद्ध करनेवाला है, इंद्रिय संयम व प्राण संयम कमौके आनेको रोकनेवाले हैं इन तीनों ही संयोगसे मोक्ष होती है ऐसा जिन शासनमें कहा गया