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तृतीय खण्ड। [१०५ ___भावार्थ-यह जिनआगमका बढ़िया रहस्य चित्तमें धारलो कि नहां रागादिकी उत्पत्ति है वहां हिंसा है तथा जहां २ इनकी । प्रगटता नहीं है वहां अहिंसा है ॥ १६॥ .
___ उत्थानिका-आगे हिंसाके दो भेद हैं अन्तरङ्ग हिंसा और बहिरङ्ग हिंसा । इसलिये छेद या भङ्ग भी दो प्रकार है ऐसा व्याख्यान करते हैं:मरदु व निवदु व जीवो अयदाचारस णिच्छिदा हिंसा । पयदस त्यि बन्धो हिंसामेत्तेण समिदीसु ॥ १७॥ त्रियतां वा जोवतु वा जोवोऽयताचारस्य निश्चिता हिंसा । प्रयतस्य नास्ति बन्धो हिंसामात्रेण समितिषु ॥ १७ ॥ ___ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जीवो मरदु व जियदु ) जीव मरो या जीता रहो (अयदाचारस्स) नो यत्न पूर्वक आचरणसे रहित । है उसके (णिच्छिदा हिंसा) निश्चय हिंसा है (समिदीस) समितियोंमें (पयदस्स) जो प्रयत्नवान है उसके (हिंसामेत्तेण) द्रव्य प्राणोंकी हिंसा मात्रसे (बन्धो गस्थि) बन्ध नहीं होता है।
विशेषार्थ-बाह्यमें दूसरे जीवका मरण हो या मरण न हो जब कोई निर्विकार स्वसंवेदन रूप प्रयत्नसे रहित है तब उसके निश्चय शुद्ध चैतन्य प्राणका घात होनेसे निश्चय हिंसा होती है। जो कोई भले प्रकार अपने शुद्धात्मस्वभावमें लीन है, अर्थात् निश्चय समितिको पाल रहा है तथा व्यवहारमें ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, प्रतिष्ठापना इन पांच समितियोंमें सावधान है, अन्तरङ्ग व बहिरङ्ग प्रयत्नवान है, प्रमादी नहीं है उसके द्रव्यहिंसा