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तृतीय खण्ड। [१५३ है।आहार, मैथुन, चीर, रान इन चार विकथाओंके भीतर अधिक रंजायमान होकर परिणमनेकी सुगमता तथा आत्मध्यानमें जमे रहनेकी शिथिलता है। .
(२) स्त्रियोंमें अधिक मोहं, ईर्षा, द्वेष, भय, ग्लानि व नाना प्रकार कपटनाल होता है। चित्त उनका मलीनतामें पुरुषोंकी अपेक्षा अधिक लीन होता है।
(३) स्त्रियोंका शरीर संकोचरूप न होकर चंचल होता है। उनके मुख, नेत्र, स्तन आदि अंगोंमें सदा ही चंचलता व हावभाव भरा होता है जिससे सौम्यपना जैसा मुनिके चाहिये नहीं आसक्ता है।
(४) स्त्रियों के भीतर काम भावसे चित्तका गीलापना होता है व चित्तकी स्थिरताकी कमी होती है।
(५) प्रत्येक मासमें तीन दिन तक उनके शरीरसे.रक्त वहता है जो चित्तको बहुत ही मैला कर देता है।
' (६) उनकी योनि, उनके स्तन, नाभि, काखमें लब्ध्यपर्यातक संमूर्छन मनुष्योंकी उत्पत्ति होती है तथा मरण होता है इससे 'बहुत ही अशुद्धता रहती है।
(७) स्त्रियोंके तीन अन्तके ही संहनन होते हैं जिनसे वह मुक्ति नहीं प्राप्तकर सकी । १६ खर्गसे ऊपर तथा छठे नर्कके नीचे स्त्रीका गमन नहीं होसक्ता है-न वह सातवें नर्क जासक्ती न अवेयक आदिमें जासती है । श्वेतांबर लोग स्त्रियों मोक्षकी कल्पना करते हैं सो बात उनहीके शास्त्रोंसे विरोध रूप भासती है कुछ श्वेतांबरी शास्त्रोंकी बातें