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- तृतीय खण्ड ।
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रता हुआ भी यद्यपि बाहरमें कुछ द्रव्य हिंसा है तौ भी उसके निश्चय हिंसा नहीं है । इस कारण सर्व तरहसे प्रयत्न करके शुद्ध परमात्माकी भावनाके बलसे निश्वय हिंसा ही छोड़नेयोग्य है ।
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भावार्थ - यहां आचार्यने अन्तरंग हिंसाकी प्रधानतासे उपदेश किया है कि शुद्धोपयोग या शुद्धात्मानुभूति या वीतरागता अहिंसक भाव है और इस भाव में रागद्वेषकी परिणति होना ही हिंसा है। जो साधु वीतरागी होते हैं वे चलने, बैठने, उठने, सोने, भोजन करने आदि क्रियाओंमें बहुत ही यत्नसे वर्तते हैं - सर्व जंतुओं को अपने समान जानते हुए उनकी रक्षामें सदा प्रयत्नशील रहते हैं उन साधुओं के भावोंमें छेद या भंग नहीं होता । अर्थात् उनके हिमक भाव न होनेसे वे हिंसा सम्बन्धी कर्मबंधसे लिप्त नहीं होते हैं उसी तरह जिस तरह कमल जलके भीतर रहता हुआ भी जलसे स्पर्श नहीं किया जाता । यद्यपि इस सूक्ष्म बादर छः कायोंसे भरे हुए लोकमें बिहार व आचरण करते हुए कुछ बाहरी प्राणिकाघात भी हो जाता है तौभी जिसका उपयोग हिंसकभावसे रहित है वह हिंसा के पापको नहीं बांधता, परन्तु जो साधु प्रयत्न रहित होते हैं, प्रमादी होते हैं उनके बाहरी हिंसा हो वन हो दे छह कायोंकी हिंसा कर्त्ता होते हुए हिंसा सम्बन्धी बंधसे लिप्त होते हैं। यहां यह भाव झलकता है कि मात्र परप्राणीके घात होजानेसे बन्ध नहीं होता । एक दयावान प्राणी दयाभावसे भूमिको देखते हुए चल रहा है । उसके परिणामों में यह है कि मेरे द्वारा किसी जीवका घात न हो ऐसी दशामें वादर पृथ्वी, वायु आदि प्राणियोंका घात शरीरकी चेष्ठासे हो भी जावे तो भी वह भाव हिंसाके