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२४६] श्रीप्रवचनसारटोका। शास्त्र के ज्ञानसे भी संयुक्त हो (घोरं चरियं चरदि) और घोर चारित्रको भी आचरण करै (इथिस्स णिज्जरा ण मणिदा) तौभी स्त्रीके सर्व कर्मकी निर्जरा नहीं कही गई है। . . विशेषार्थ-यदि कोई स्त्री शुद्ध सम्यक्तकी धारी हो व ग्यारह.अंग मई सूत्रोंके पाठको करनेवाली हो व पक्ष भरका व मास मासं भरका उपवाप्त आदि घोर तपस्याको आचरण करनेवाली हो तथापि उसके ऐसी निर्जरा नहीं होसक्ती है, जिससे स्त्री उसी भवमें सर्व कर्मको क्षयकर मोक्ष प्राप्त कर सके । इस कहनेका प्रयोजन यह है कि जैसे स्त्री प्रथम संहनन वजवृपभनाराचके न होनेपर सातवें नर्क नहीं जासकी तैसे ही वह निर्वाणको भी नहीं प्राप्त कर सकती है।
' यहां कोई है कि इस गाथाके कहे हुए भावके अनुसार "वेद वेदता पुरिसा जे खवगसेडिमारूता । सेसोदयेणवि तहा शाणुवजुत्ता यते दु सिझंति" (अर्थात् पुरुष वेदको भोगनेवाले पुरुष जो क्षपक श्रेणिपर आरूढ़ होजाते हैं वैसे स्त्री व नपुंसक वेदके उदयमें भी ध्यान में लीन क्षरक क्षेणिपर जा सिद्ध होजाते हैं) • भाव स्त्रियोंको निर्वाण होना क्यों कहा है ? इसका समाधान यह
है कि भाव स्त्रियोंके प्रथम संहनन होता है, द्रव्य स्त्रीवेद नहीं होता है, न उनके उसी भवमें मोक्षके भावोंको रोकनेवाला तीव्र
कामका वेग होता है । द्रव्य स्त्रियोंको प्रथम संहनन नहीं होता . है क्योंकि आगममें ऐसा ही कहा है जैसे
"अतिमतिगसंघड़णं णियमेण य कम्मभूमिमहिलाणं । आदिमतिगघडणं णस्थिति निणेहि णिट्टि । .