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है । प्रासादका मण्ड उत्सेका जगती पीठ होता था उसके अपर प्रासादका जो भाग पीठ से छज्जे तक बनाया जाता था वह मण्ड के उपर होने के कारण मण्डोपरि या मण्डोवर कहलाया। इसी मण्डोवर भाग में गर्भगृह रहता है। यहां मण्डोवर के उत्सेध या उदय अथवा उँचाई के १४४ भाग करके उन भागों के भिन्न भिन्न नाम दिए गए हैं-जसे बरा कुम्मा, कलश, अन्तराल, केवॉल आदि, मण्डोवर के रूप संपादन के लिए उनमें से प्रत्येक का अपना महत्त्व है (६३-६५) गर्भगृह के द्वारमान का वर्णन सुनिश्यित और सटीक है। यह वर्णन प्रासाद-शिल्प संबन्धी सभी छोटे बडे ग्रन्थों में पाया जाता है । वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में द्वार के पार्श्वस्तंभापर माङ्गल्य विहंगों का उल्लेख किया है। अबतक केवल तेजपुर के दहपर्वतिया मन्दिर के पार्श्वस्तम्भों पर ही उत्कीर्ण पाए गए है। वे अत्यन्त सुन्दर उडते हुए हंसो के रूप में हैं। द्वार के पार्श्वस्तम्भों को द्वार शास्त्रा कहते है और प्रत्येक शाखा के कई अवान्नर भाग होते हैं जिन्हें संस्कृत में उपशाखा या हिन्ही में बांट कहते है। प्रासाद मञ्जरी के अनुसार द्वार शाखा के १, ३, ५, ८ और ९ तक स्वांचे या अवांत्तर विभाग बनाए जाते हैं। हिन्दी में अभीतक त्रिसाही (त्रिशाखा) पंचसाही (पञ्चशाखा) शब्द चलते हैं। इन शाखाओं के अलंकरणों पर स्थपति और काष्ट कर्म करनेवाले बहुत ध्यान देते हैं। ज्ञात होता है कि इनकी रचना में प्राचीन परम्पराएं भी अवशिष्ट रह गई हैं। शाखाओं पर प्रतिहार या द्वारपाल की मूर्तियां विशेषत बनाई जाती थीं। कभी कभी उनके हाथ में पूजा को मालाएं भी रहती हैं ! द्वारका सबसे विशिष्ट अल कार गंगा
और यमुना की मूर्तियां हैं जो अपने वाहन मकर, कच्छप पर पूर्णघट और चामर लिए हुए दिखाई जाती है। गुप्त कालीन मन्दिरों में ही इन्हें उत्कीर्ण किया जाने लगा था। जैसा कालिदास के स्पष्ट उल्लेख से ज्ञात होता हैं।
मूर्ते च गंगा यमुने तदानी स चामरे देवमसेविषाताम् । समुद्रगा रूप विपर्ययेऽपि सहसपाते इव लक्षभागे ।
[ कुमार संभव ७-४२] चामर लिए हुए गङ्गा यमुना की मूर्तियों के उडते हुए हंसो का वह उल्लेख बहुत ही महत्त्वपुर्ण है । इस अल करण का शबसे विशिष्ट स्वरूप देवगढ़ के गुप्तकालीन दशावतार मन्दिर में पाया जाता है। इसमें गङ्गा यमुना की मूर्तियां द्वार के अपरी कोनो में बनाई गई है किन्तु कालान्तर में वे पार्श्वस्तम्भों के लेचन भाग में बनाई जाने लगी । और भी उपशाखाओं पर मिथुन प्रथथ या गण चतुर्दल कमल आदि शोभनीय अलंकरणों से द्वार को सुन्दर बनाया जाता था।