Book Title: Prasad Manjari
Author(s): Prabhashankar Oghadbhai Sompura
Publisher: Balwantrai Sompura

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Page 138
________________ ८० रत्न संभव इंद्रनील ७ * प्रासादमञ्जरी गुद मंडप. प्रभाशंकर.ओ. स्थपति 80 " हुए चोसठ स्तंभों तक के पुष्पकादि सताईस मंडपों के नाम ओर स्वरुप शिल्पग्रंथो में दिये गये हैं । 30 १४८, ४९ ३० दूसरे प्रकारके मी मंडप कहे हैं - देव प्रासादके आगे करने के मंडप में मेर्वादि पच्चीश मंडप एक से पांच भूमि = मंजिल तक किये गये हैं । जिनके नाम स्तंभ संख्या, स्वरूपादि दीपार्णव, क्षीरार्णव, ज्ञान रत्नकोश और अपराजित आदि बडे बडे ग्रंथ में दिये गये हैं । सांधार महा प्रासाद या महा चातुर्मुख मंडपके आगे अमुक देवके प्रासादके लिये अमुक नामका मंडप करने का कहा गया है । १ शिवनाद । २ हरिनाद । ४ रविनाद । ६ मेघनाद । ३ ब्रह्मनाद | ५ सिंहनाद | ये मंडप बहुत विशाल और तीन चार अथवा पांच भूमि (मंजिल) के ऊंचे होते हैं । मानसार में प्रयोजनार्थ कई प्रकारके मंडप कहे हैं । नगरके आगे, पुण्यक्षेत्रे, तीर्थक्षेत्रे, जलाशये, यात्रा मार्गपर, राज्यशृङ्गारार्थ नृत्यगीत, राज्याभिषेकार्थ, नृप भोजनार्थ, अग्निकार्यार्थ, आदि । मंडप के ऊपर वितान ( गुम्बज ) अर्थात् आकाश या उपरकी आच्छादक चंदनी या छत करनेका अनेक प्रकार शिल्पज्ञोंने कहा है । उनमें से वितानके तीन विधान प्रधान हैं । सर्व वितान के लक्षणोंकी उत्पत्तिः समः सरखा छतः छातियां ढकने से प्रथा

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