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* Prasad Marjari *
ऊपरका शृङ्ग पीछे हटता हुआ चढाना; ऊपरके शृङ्गके नीचे थोडी जंघा-थाल छज्जी और दोढिया जैसी आकृतीयाँ बनानी फिर उन पर शृङ्ग चढाना ।
शृङ्ग-शिखरी अपने अपने अंग विस्तार के प्रमाण से सवाइ १३ ऊँची करनी नीचे जितवी चौडाई हो, उससे ऊपर स्कंध-बांधणे आधा (कुच्छ अधिक) चौडा रखना और उसके ऊपर आमलसारी । स्कंध विस्तार जितनी चौडी और 'उससे अर्ध ऊंची करनी । ८०-८१
शिखर की मूल रेखा-कर्ण, प्रतिरथ कौर रथादि अङ्गके ऊपर एक, दो या तीन अथवा जितने शृंग कहे गये हों, क्रमशः चढाना; चिरंधार प्रासाद में गर्भगृहकी दीवारकी अंदरकी फर्क से मूलकण रेखाकर पायचा फर्क रखना, (गर्भगृहकी अंदर पायचा जङना नहीं चाहिये । महा दोष उत्पन्न होता है) सांधार प्रासाद के लिये गर्भगृहकी प्रथम दिवारकी बहारकी फर्क से मूलरेखाका पायचा मिलाना । शिखरकी
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श्रृंग पर श्रृंग विधान
उरुश्रृंग विधान