Book Title: Prasad Manjari
Author(s): Prabhashankar Oghadbhai Sompura
Publisher: Balwantrai Sompura

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Page 10
________________ प्राचीन आर्ययुगमें यह कला सरल रूपमें अल्पजीवी पदार्थ युक्त थी । काष्ठ, पाषाण, बादमें इष्टिका, धातु आदि वास्तु द्रव्योंका झुपयोग शनैः शनैः होता गया । रामचरित मानस और महाभारत जैसे जैतिहासिक महाकाव्योंमें देवालय, महालय और सामान्य गृहोंके विविध वर्णनके शाब्दिक चित्र हैं। मानव उत्क्रांतिके साथसाथ शिल्प विद्याका भी विकास होता गया । समरांगण सूत्रधार और अपराजित सूत्रस'तानमें' वास्तुउद्भवकी पौराणिक आख्यायिकाओंमें अेक मनोरंजक कथा है । पृथ्वीके विकासके प्रारंभकालमें पृथुराजासे भयत्रस्त पृथ्वी सृष्टिकर्ता ब्रह्माके पास गी । और अपने पर गुजरते त्रासका निवेदन किया । ब्रह्माजीने पृथुराजको बुलाया और हकीकत पूछी । पृथुने ब्रह्माजीसे प्रार्थना करते हुओ कहा कि हे जगन्नाथ, आपने मुझको जगतस्वामि बनाया । पृथ्वी के अपर तो गढे, टीले, पर्वत आदि बहुत है तो वर्णाश्रमधर्म के योग्य लोगों के वास के लीये समतल भूमि बनाना अनिवार्य है ही। अिसके सिवा उपाय क्या है ? महाराजा पृथुकी बात सुनकर, दोनों को शांत करके प्रजापतिने कहा "हे महीपाल, आप मही याने कि पृथ्वीका विधिवत् पालन करें तभी यह पृथ्वी निस्संदेह निष्पाप होकर आप और समस्त प्राणिवर्ग के उपभोगके लिये योग्य बनेगी। अपने स्थानादि के लिये सर्व सिद्धि प्रवर्तक भृगुऋषिके भानजे (प्रभास के पुत्र) विश्वकर्माका बहुमान करे, सुनको सेवा संपादन करे । वे बृहस्पतिसम प्रखरबुद्धिवाले हैं। वे आपके राज्यमें पुर, ग्राम, नगर गृहादि बसायेंगे जिससे यह पृथ्वी स्वर्गसम बसने योग्य बनेगी । अतः हे वत्स, तुम जाओ अपना काम करो। और हे पृथ्वी, तुम भी भय छोडके राजा पृथुकी प्रियंकर, बनो और हे विश्वकर्मा आप भी राजा प्रजाके अिच्छित कार्य कीजिये ॥” अिस तरह पृथुराजाने विश्वकर्माकी सेवा प्राप्त की और पृथ्वीको शिल्प- स्थापत्यसे सजाया । जैन आगम ग्रंथो में भी वास्तुदेवों के नाम और अनकी बलिपूजादि विधियां दी गयी है । अस संप्रदायके स्थापत्योमें चैत्य, स्तूप, विहार और स्तंभोंकी प्रथा थी। बौद्धोंने भी अनका अनुसरण किया था नहीं यह बात खोजनेकी है । ईसवीसनके पूर्वका मथुरामें अक जैन स्तूप था । जैन आगामें देवालय को वैत्य कहते हैं। जैनसाधुओंके वासके लिये विहारकी प्रथा अस संप्रदाय में थी । अिस प्रथामें परिवर्तन हुआ और वर्तमानमें शहरों में "उपाश्रय” होने लगे। जैनोंमें स्तंभकी प्रथा अबतक दिगम्बर संप्रदायमें मौजुद है। भगवान वृषभदेवके बाद अनके पुत्र भरत चक्रवर्ती और बाहुबलीने की

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