Book Title: Prakrit Vyakaranam Author(s): Narmadashankar Damodar Shastri Publisher: Narmadashankar Damodar Shastri View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मागधी व्याकरणम्. सलगावी सजा करे , जेथी रात्रि सुखेथी उलंघन थाय ने.” श्रा गाथामां झल्लरि विगेरे देश्य नापाना शब्दो के तेमज " सत्तावीसं जोअण" आ गाथानो अर्थ एवो ने के "जेनुं बिंब तिरस्कार पामेलु बे एवा चंजना जेवू जेनुं मुख , एवी हे स्त्री ! ज्यां सुधी चंजना किरणो पसार थया नथी त्यां सुधी तुं उद्यानमांजा" अहिं चंजनुं नाम सत्तावीसं जोअण ए शब्दथी, देशीलाषारूपे कहेलुं बे. प्राकृत भाषामां ऋक लू वृ ऐ श्री ङ् श ष, विसर्ग अने प्लुत-ए अदरो आवतांज नथी. तेमां ङ् तथा ञ् पोताना वर्गनी साथे संयुक्त थावे जे. अन्य आचार्योना मत प्रमाणे क्वचित् ऐ अने औ आवे जे. जेम के कैतवं कितव जे कपट तेनो नाव अथवा तेनुं कर्म ते कैतव कहेवाय . अहिं युवादेः ए सूत्रवडे अणू प्रत्यय भावी वृद्धि थाय . कैतव ए शब्दमां ऐत एत् ए सूत्रनी प्राप्ति थवा श्रावी, तथापि कोइ आचार्यना मत प्रमाणे प्राकृतमां पण ऐकार जोवामां आवे ने, तेथी ऐकारनो एकार न पाय. कैतवम् ए शब्दमां कगचजे ति ए सूत्रवडे त् नो लुक् थयो, ते शब्द नपुंसके होवाथी प्रथमाना स् नो म् थयो, अने मोनुस्वारः ए सूत्रथी म् नो अनुस्वार अश् कैअवं एवं रूप सिद्ध थयु. “कैअवरहितं" ए गाथामां ते कहेलो . तेनो एवो अर्थ डे के, “हे सखि, कैतव (कपट ) रहित एवो प्रेम आ मनुष्य लोकमां नश्री, जो एवो प्रेम होय तो पनी विरह क्यो कहेवाय; अने जो खरेखरो विरह होय तो पली कोण जीवे अर्थात् कोपण जीवे नहि." वली तेने माटे हैम अनेकार्थ कोषमां लखे डे के, कैतव शब्द द्यूत अने दंजना अर्थमा प्रवर्ते ने. सौंदर्य ११ ए नपुंसके प्रथमानुं एक वचन बे. तेमां कगचज ए सूत्रधी द नो लोप थाय, अचौर्यसमेषु ए सूत्रवडे तेमां रहेला य् नी पेहेला आवे,ते संस्कृत व्याकरणना नियमथी . कगचज ए सूत्रथी य् नो लोप थाय. ते नपुंसके होवाथी सि स्थाने म् आवे अने म् नो अनुस्वार पाय, एटले सौअरिअं ए रूप सिद्ध थाय ने. कौरवाः ११ ए प्रथमानुं बहुवचन . अहिं औतउत् प सूत्रथी औकारनो घात थवो जोइए, तेम बतां औकार रहेलो . जसशसूङसित्तोदोद्वामि ए सूत्रथी दीर्घ व नो हस्व व थाय, अने व नी आगल जस्रशसोलुंक ए सूत्रथी जसू नो लोप थाय, एटले कौरवा एवं रूप सिद्ध थाय बे. आ प्राकृत भाषामां स्वर रहित व्यंजन अने स्यादि एटले नाम विनक्ति अने त्यादि एटले धातु विनक्ति तेमनु घिवचन अने चतुर्थी विज्ञक्तिनुं बहुवचन, अतां नश्री ॥१॥ बहुलं ॥३॥ बहुल मित्यधिकृतं वेदितव्यमाशास्त्रपरिसमाप्तेः । ततश्च “ कचित् प्रवृत्तिः कचिदप्रवृत्तिः क्वचिहिनाषा क्वचिदन्यदेव नवति “ तच्च यथास्थानं दर्शयिष्यामः" For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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