Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 8
________________ "दुदोह गां स यज्ञाय शस्याय मघवा दिवम् । सम्पद् विनिमयेनोभौ दधतुर्भुवनद्वयम् ।।" -(शब्दकल्पद्रुम, भाग 4, पृष्ठ 369) संभवत: इन्हीं श्रेष्ठ अर्थों में प्रयुक्त एवं प्रचलित होने के कारण अतिविशिष्ट ज्ञाता गणधर इन्द्रभूति के कुल का नाम गौतम' पड़ा। 'गौ' अर्थात् सारस्वत ज्ञाता, तथा तम' अर्थात् सर्वश्रेष्ठ —इसप्रकार तत्कालीन मनीषीजनों में सर्वश्रेष्ठ होने से इनके कुल का नाम 'गौतम' अन्वर्थक था। तथा इनकी अतिविशिष्ट प्रतिभा के कारण ही इन्द्र ने अवधिज्ञान से इन्हें भगवान् महावीर का प्रधान शिष्य' या 'गणधर' होने योग्य पाया था। —यह कथा प्रायश: विदित होने से यहाँ उसका उल्लेख नहीं कर रहा हूँ। विद्वज्जनों में विशेषत: 'गो'शब्द सारस्वत-अभिप्राय में प्रचलित एवं रूढ़प्राय: रहा है, यह उपर्युक्त विवरण से भलीभाँति स्पष्ट है। विशेषत: 'वाग्मी' या 'वाचंयमी' मनीषी के लिए इस शब्द से निर्मित विशेषण प्रयुक्त होते थे। इसीलिए वाणी के वैदुष्य एवं वाक्-संयम को 'गोरक्षा' का तथा गोवध-प्रतिकार' का प्रतीक माना जाता रहा है। तथा इसके विपरीत अभद्रवचन, लोक एवं शास्त्र की मर्यादा के विरुद्ध वचन तथा प्राणपीड़कवचनों के प्रयोग को गोवध' का प्रतीक माना गया है। इस सम्बन्ध में ऋग्वेद' का एक मन्त्र द्रष्टव्य है "वाचोविदं वाचमुदीरयन्ती, विश्वाभिधीभिरुपतिष्ठमानाम् । देवी देवेभ्य: पर्येयुषीं, गामा मा वृक्त मोदभ्रतेताः ।।" – (ऋग्वेद, 8/3/16) अर्थ :- वह वाणी, जो अपने वाक्स्वरूप के कारण स्वयं विदुषी है, जाननेवाली है, जो उदीर्ण होती है, ऊर्ध्वगमन करती है (क्योंकि वाक् नाभिकेन्द्र में सुप्तावस्था में स्थित होती है; . किन्तु जब कोई व्यक्ति विवक्षा करता है, तब वह वहाँ से प्राणाग्नि की शिविका पर आरूढ होकर मुखयन्त्र के द्वारा स्फोटरूप में अभिव्यक्ति ग्रहण करती है; अत: उसे ऊर्ध्वगमना कहा गया है) तथा जो विश्व की समस्त बुद्धियों से उपतिष्ठमान (अर्चित) है, जो दिव्यस्वरूपा (दैवी) है और जो देवताओं की ओर अभिगमन करती है (अर्थात् दिव्य तत्त्वों को प्रकाशित करती है); उस वाग्देवी को (जिसे 'कामदोघी' होने से कामधेनु' तथा 'गौ' शब्दों से प्रतीकरूप में कहा गया है) क्षुद्रमनवाला मनुष्य निहत या आहत न करे। असत्य-भाषण एवं अशुद्ध उच्चारण आदि भी वाग्वध' (गोहत्या) माना गया है। अत: विद्वान् और साधुपुरुष वाणी के सही उच्चारण एवं मर्यादित निर्दोष प्रयोग से 'गोरक्षा' (वाणी की रक्षा) करे। ___ वस्तुत: वाणी की मर्यादा का यह चिंतन अहिंसामूलक है। इसीलिए मनीषियों ने लिखा है- “अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् । वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता।।" -(शब्दकल्पद्रुम, भाग 4, पृष्ठ 317) अर्थ :- अहिंसकवचनों से ही प्राणियों का अनुशासन करना चाहिए (अर्थात् 106 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000

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