Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 7
________________ क्योंकि इस सीमित दृष्टिकोण के कारण गोरक्षा' एवं 'गोवध-प्रतिकार' जैसे आन्दोलन अत्यन्त संकुचित क्षेत्र में सिमटकर रह गये हैं। यहाँ तक कि जनसामान्य में इन शब्दों से पशु-विशेष को बचाने की ही बात ध्यान में आती है। वाणी के प्रयोग' या 'बौद्धिक चिन्तन' के स्तर पर यदि कोई मर्यादा का उल्लंघन हो रहा हो, तो वह भी 'गोवध' है तथा उसका भी प्रतिकार करना 'गोवधप्रतिकार' एवं 'गोरक्षा' है —यह बात विचार में भी नहीं आ पाती है। इन्द्रियों का ज्ञानात्मक उपयोग न करके विषय-सेवनरूप प्रयोग भी 'गोवध' है तथा उनका संयमन भी गोरक्षा' है – इसकी तो कल्पना भी संभवत: आज के तथाकथित आन्दोलनकारी नहीं कर पाये हैं। पृथिवी-अग्नि-आकाश आदि के प्रति जो मर्यादित आचरण भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्य रहे हैं, उनका आज वैज्ञानिक अनुसंधान, औद्योगिक प्रसार के नाम पर भौतिकवादी लिप्साओं के कारण जो अन्धाधुन्ध दोहन एवं अतिक्रमण हो रहा है, वह भी गोहत्या' या 'गोपीड़न' के रूप में परिभाषित हो सकता है— यह कथन तो गोरक्षावादियों को संभवत: विक्षिप्त-प्रलाप जैसा प्रतीत हो सकता है। किन्तु ये सब बातें चिरन्तन भारतीय सांस्कृतिक जीवनमूल्यों के अनुसार पूर्णत: सत्य हैं तथा भारतीय साहित्य, भाषाशास्त्र व कोशग्रन्थ इनके पोषक साक्ष्य हैं। ___ यही कारण था कि मुझे 'गो' शब्द का अर्थ 'पशु-विशेष' तक सीमित किये जाने से आपत्ति हुई। यह आपत्ति तो प्रत्येक चिन्तक, विचारक एवं भारतीय संस्कृति-साहित्यइतिहास-भाषाशास्त्र आदि में आस्था रखनेवाले व्यक्ति को होनी ही चाहिये; क्योंकि इससे इतना महनीय शब्द अपनी व्यापकता खो रहा है। संभवत: गोरक्षा-आन्दोलनवालों को भी उनके आराध्य 'गो' शब्द का यह व्यापकरूप प्रसन्नता प्रदान करनेवाला ही सिद्ध होगा। प्रस्तुत प्रकरण में यहाँ गो' शब्द के उस सारस्वतरूप की चर्चा मैं इष्ट समझता हूँ, जिसे सरस्वती, वाणी, शब्द, प्रवचन आदि सारस्वत अर्थों का प्रतिपादक माना गया है। इन अर्थों में यह शब्द अनेकत्र प्रयुक्त मिलता है, किंतु विस्तारभय के कारण एक-दो निदर्शन ही यहाँ प्रस्तुत करना अपेक्षित समझता हूँ। "सरस्वती' अर्थ में 'गो' शब्द - "गौ: श्री इति जटाधरः" – (शब्दकल्पद्रुम, भाग 5, पृ० 289) "वाक् च सरस्वती इत्यमरः” – (वही, भाग 4, पृ0 317) . 'किरातार्जुनीयम्' आदि साहित्य-ग्रन्थों में भी इस अर्थ में 'गो' शब्द प्रयुक्त प्राप्त होता है। 'वाणी' या 'वचन' के अर्थों में 'गो' शब्द - "रघोरुदारामपि गां निशम्य" – (रघुवंशमहाकाव्य, 5/12) तथा 'सूयगडंग' (1/13) में भी 'वाणी' के अर्थ में 'गो' शब्द का प्रयोग मिलता है। 'पृथ्वी' अर्थ में भी महाकवि कालिदास ने 'गो' शब्द का प्रयोग किया है प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 005

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