Book Title: Prakrit Bhasha ka Tulnatmak Vyakaran
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 48
________________ विविध प्राकृत भाषाएँ (च) पैशाची (१) यह भाषा संस्कृत और पालि के अति निकट है । (२) इसमें शब्द के आदि के 'य' का 'ज' में परिवर्तन नहीं होता है। (३) इसमें मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप नहीं होता है। (४) इसमें मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजनों का प्रायः 'ह' में परिवर्तन नहीं होता है। (५) इसमें तालव्य व्यंजनों का प्रायः मूर्धन्यीकरण नहीं होता है । (६) इसमें अघोष व्यंजन का प्रायः घोष नहीं होता है । (७) इसमें मुख्य परिवर्तन प्रायः इस प्रकार से होते हैं : (अ) णन् : गुन (गुण), [न का ण में परिवर्तन नहीं होता है : कनक (कनक)] (ब) श्, ष्-स् : श् और ष् का स् में परिवर्तन होता है । (स) द-त् : मतन (मदन), तेव (देव), तामोतर ( दामोदर), [भगवती (भगवती), सत (शत )] (द) टु-तु : कुतुम्बक (कुटुम्बक) (क) ल=ळ : सीळ (शील), कुळ (कुल) (ख) ह–ति : यातिस (यादृश) (ग) हृदय के लिए हितपक शब्द चलता है । (घ) , न्य् और ण्य का ज्ञ् हो जाता है : पञा (प्रज्ञा), कञा (कन्या), पुच (पुण्य) (च) इव के लिए पिव का प्रयोग होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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