Book Title: Prakrit Bhasha ka Tulnatmak Vyakaran
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 133
________________ ११६ (अ) अल्पप्राण क= अनेक, आकुल, एकदा, एकारस, घडिकं, लोक अनगार, पूगफलं, भगवता, भगिणी अचलं, अचिरेण सूचि , ओज, पूजन, भोजनं, वीजितुं अणुमत, अरति, अहित, आतुर, एतं, एते, एतेण, गति, गीत, गच्छति, जीवितुं ततिय, पवेदित, बितिय, सोत अदत्तादाण, आदंसग, (आदर्शक), आदाय, उदग, उदर, उपदेस, एगदा, खादति, चोदित्ता, छन्नपदेण, छेदणं, जवोदनं, पमाद पवेदित, पादछेज्जाई, वदासी, वदित्ताणं उपकसन्ति, उपजाति, उपदेस, उपयार, उपागत ग च ज त= द= प : ( ब ) घ : महाप्राण पडिघात पव्वथित प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण थ : ध : अधे, इध, ओसध, कोध, मेधावी, वधेन्ति, सन्निधान भ : अभि-(उपसर्ग), नाभि, पभू, विभूसा (मध्यवर्ती 'भ' प्रायः यथावत् रहता है 1) (स) मध्यवर्ती दन्त्य नकार को मूर्धन्य णकार में बदलने की प्रक्रिया बहुत बाद की है । ई.स. पूर्व की प्राकृत भाषा में इसको इतना बड़ा स्थान प्राप्त नहीं था । यह तो ई.स. के बाद की प्राकृतों का लक्षण है । अर्धमागधी प्राकृत में शब्द के प्रारंभ में दन्त्य नकार प्राय: यथावत् (पालि भाषा की तरह) ही रहता है परंतु मध्यवर्ती नकार भी कभी कभी मिलता है । इस भाषा में मध्यवर्ती दन्त्य नकार को मूर्धन्य णकार में बदलने की जो प्रथा चल पड़ी हैं वह भी महाराष्ट्री प्राकृत के अत्यंत प्रभाव में आ जाने के कारण प्रचलित हुई है और लेखन (orthography) पद्धति की त्रुटि अथवा भ्रम के कारण भी ऐसा हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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