Book Title: Prakrit Bhasha ka Tulnatmak Vyakaran
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 132
________________ ९. परिशिष्ट अ. अर्धमागधी भाषा विषयक नयी विशेषताएँ अर्धमागधी प्राकृत भाषा की अन्य विशेषताएँ (प्रो. हर्मन याकोबी, आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी, पं बेचरदासजी दोशी एवं प्रो. ए.एम. घाटगे के निष्कर्ष-पूर्ण मन्तव्यों के आधार से प्रस्तुत) अर्धमागधी में मध्यवर्ती व्यंजनों का महाराष्ट्री प्राकृत की तरह प्रायःध्वनि-परिवर्तन (लोप) नहीं होता है। उसमें यह परिवर्तन कभी कभी होता है और इसके अतिरिक्त पद-रचना के अन्य लक्षणों के आधार पर इसे पालि भाषा से अधिक निकटता रखने वाली भाषा कही गयी है। इसी कारण यह अन्य प्राकृतों से प्रायः अलग पड़ जाती है । बिलकुल जिस प्रकार अपभ्रंश 'ह'कार बहुल भाषा मानी जाती है उसी प्रकार अर्धमागधी 'ए'कार बहुल कही जा सकती है और मागधी की प्र.ए.व.की पुलिंग की 'ए'विभक्ति का ही यह प्रभाव है। अशोक के पूर्व भारत के शिलालेखों की भाषा में भी इसी प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं । . १. (अ) इस भाषा में ऋकार का 'इ' में परिवर्तन अधिक मात्रा में पाया जाता हैं : गिह (गृह), हिदय (हृदय), अलंकिय (अलङ्कृत) (ब) शब्द के मध्य में और अंत में भी 'ए'कार के प्रयोग मिलते हैं : अधे (अधः), ने (नः), धम्मे (धर्मः), करेति (करोति), सुणेति (श्रुणाति) मध्यवर्ती व्यंजन क, ख, त और थ का कभी कभी घोष में परिवर्तन मिलता है : एग (एक), आघाति (आख्याति), पाद (पात-पात्र), पादगं (पातकम्), जधा, तधा, (यथा, तथा) गोरधग (गोरथक), मेधुण (मैथुन) महाराष्ट्री प्राकृत की तरह मध्यवर्ती व्यंजनों का प्रायः लोप नहीं होने से इस भाषा में व्यंजन यथावत् स्थिति में भी मिलते हैं! ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144