Book Title: Prachin Lekhankala aur Uske Sadhan
Author(s): Punyavijay, Uttamsinh
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 6
________________ प्राचीन लेखनकला और उसके साधन प्राचीन लेखनकला और उसके साधन पाश्चात्य यान्त्रिक आविष्कार के युग में अनेक कलाओं को खोने के बाद उनके पुनरुद्धार हेतु विविध प्रयत्न करने के बावजूद हम तादृशी सफलता प्राप्त नहीं कर सके हैं, मुद्रणकला के प्रभाव के कारण अदृश्य हो रही लेखनकला के संबन्ध में भी न्यूनता रूपी प्रसंग हमारे सामने आने लगे हैं। आज से लगभग पच्चीस वर्ष पहले गुजरात एवं मारवाड़ में लहियाओं के वंश (परिवार) कुटुम्ब विद्यमान थे, जो परम्परानुसार पुस्तक-लेखन का ही व्यवसाय करते थे । परन्तु मुद्रणकला के युग में उनसे पुस्तकें लिखानेवालों की संख्या घटने के कारण उन्होंने अपनी संतति को अन्य उद्योगों की तरफ मोड़ दिया । परिणाम यह आया कि, जिन लहियाओं को एक हजार श्लोक लिखने हेतु, दो या तीन रुपिया, अच्छे से अच्छा लहिया हो तो, चार रुपिया दिये जाते थे, और वे जैसी सुन्दर लिपि तथा सम्मुख विद्यमान आदर्श लेख सदृश-आदर्श नकल लिखते थे वैसी ही शुद्ध, सुन्दर आदर्श प्रति तैयार करने हेतु आज हम एक हजार श्लोक लेखन हेतु दस से पन्द्रह रुपिया दें तो भी तादृश लेखक कोई विरला ही मिल सकता है; और ताड़पत्रीय पुरातन प्रति पर से देखकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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