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आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी म. टिप्पण:
पुरातन हस्तलिखित पुस्तकों के अन्त में प्राप्त होने वाले “सं. ११३८ वैशाख शुदि १४ गरौ लिखितं श्रीमदणहिलपाटके वालभ्यान्वये कायस्य भाईलेन' इत्यादि अनेक उल्लेखों पर से हम देख सकते हैं कि भारतवर्ष में कायस्थ, ब्राह्मण आदि जाति के अनेक कुटुम्ब इस व्यवसाय द्वारा स्वकीय जीवन-निर्वाह कर सकते थे । इसी कारण हमारी लेखनकला प्रौढ़ावस्था तक पहुँच सकी । यह मात्र गुजरात को ही लक्ष्य में रखकर लिखा गया है । ये ताड़पत्र साफ करने के बाद भी 24 फुट से अधिक लम्बे
और 3/2 इंच के बराबर चौड़े रहते हैं। ऐसे ताड़पत्रों पर लिखे हुए कई ग्रन्थ पाटण के संघवीना पाडा के भण्डार में विद्यमान हैं । बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखित ताड़पत्र आज भी इतने सुकुमार (कोमल) हैं कि उनको मध्यभाग से पकड़कर उठायें तो इनके दोनों तरफ का भाग स्वयमेव झुक जाये । देवर्धिगणि क्षमाश्रमण, जो जैनसूत्र की वलभीवाचना के सूत्रधार थे, उन्होंने वलभी-वळा में पुस्तक-लेखन का कार्य ताड़पत्रों पर ही प्रारम्भ किया था ऐसा सुनते हैं । यह प्रारम्भ वीर संवत् ९८० में किया गया था । काजल में गौमूत्र डालकर उसे पूरी रात भिगो कर रखें; यह भी काजल की चिकनाई को नष्ट करने की एक विधि है । गौमूत्र उतना ही डालें जितने से उपयोग में लिया गया काजल भीग जाये । शराव (रेती) में मर्दन करके काजल की चिकनाई को दूर करने की विधि के बजाय यह विधि अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि इससे वस्त्र, शरीर आदि खराब होने का बिलकुल भय नहीं रहता। परन्तु यदि स्याही में लाक्षारस डालना हो तो इस गौमूत्र का प्रयोग व्यर्थ समझें, क्योंकि गौमूत्र क्षारस्वरूप होकर लाक्षारस को फाड़ देता है।
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