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प्राचीन लेखनकला और उसके साधन अधिकतर गाँवों में 'साँप गया अने लीसोटा रह्या' अर्थात् (साँप के निकल जाने के बाद लकीर रह जाती है ) इस कहावत सदृश कुछ पुस्तकों की आडम्बर पूर्वक स्थापना करके पूजा, सत्कार आदि करने का रिवाज प्रचलित है। ___मुंबई की कच्छी जैन दशा ओसवाल की धर्मशाला में आज भी पुस्तकों की प्रतिलेखना, स्थापना, तपास (रख-रखाव) आदि विशेष विधिपूर्वक की जाती है जिससे अन्य गाँवों के बजाय उक्त तिथि का उद्देश्य यहाँ कुछ हद तक पूर्ण होता दिखाई देता है । अस्तु; आज जो कुछ भी होता हो, तथापि इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि साहित्य-रक्षण हेतु जैनाचार्यों ने जिस युक्ति का आयोजन किया है वह अत्यन्त नेहयुक्त है।
दिगम्बर जैन ज्येष्ठ शुक्ल पञ्चमी को ज्ञानपञ्चमी कहते हैं; ऐसा मैंने सुना है । यदि यह बात सही हो तो इतना अवश्य कहा जा सकता है कि पुस्तक-रक्षण की दृष्टि से कार्तिक शुक्ल पञ्चमी अधिक योग्य है ।
उपसंहार-मुद्रणयुग में लिखित साहित्य को पढ़नेवालों तथा उसके प्रति आदरपूर्वक दृष्टि रखनेवालों का अकाल न पडे इस हेतु हमारे 'गुजरात विद्यापीट' और 'गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर' के निपुण संचालक योग्य व्यक्तियों को इस दिशा में भी प्रेरित करें; इस भावना के साथ मैं अपने लेख को विराम देता हूँ।*
('पुरातत्त्व' त्रैमासिक, अषाढ़, सं. १९७९)
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