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प्राचीन लेखनकला और उसके साधन
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उस राख सदृश मिश्रण को लगाकर कपड़े से साफ कर दिया जाता है । तब कुरेदकर लिखा हुआ भाग काला होकर पूरा कागज सदृश दिखाई देता है ।
कागज पर लिखनेवाली स्याही :
१. " जिनता काजळ बोळ, तेथी दूणा गुंद झकोळ; जो रस भांगरानो भळे, अक्षरे अक्षरे दीवा बळे | ||१|| "
२. "मष्यर्धे क्षिप सद्गुन्दं, गुन्दार्धे बोलमेव च लाक्षा ं–बीयारसेनोच्चैर्मर्दयेत्" ताम्रभाजने ॥१॥"
३. " बीआ बोल अनई लक्खारस, कज्जल वज्जल ( ? ) नई अंबारस ।
भोजराज मिसि नीपाई, पानउ फाटई मिसि नवि जाई |" ॥१॥
४. " काजल टांक ६, बीजाबोल टांक १२, खेर का गोंद टांक ३६, अफीण टांक ०, अलता पोथी टांक ३, फिटकरी कच्ची टांक ०॥ निंबना घोटासु दिन सात त्रांना पात्रमां घूंटवी ।" (नीम के घोटे द्वारा सात दिनों तक तांबे के पात्र में घोंटें ।) ।"
५.
" कत्था के पानी को काजल में डालकर खूब घोंटें । काथो नांदोदी, जे काळो आवे छे, ते समजवो ।" ( कत्थे से बाहर निकलकर जो काला रंग प्राप्त होता है उसे स्याही समझें)।''
६. "हरडा तथा बहेडा का पानी बनाकर उसमें हीराकसी मिलाने पर काली स्याही प्राप्त होती है । "
कागज पर लिखने में सहायक स्याही के उपरोक्त छः प्रकारों में से पुस्तकों को चिरायुष्क बनाने हेतु प्रथम प्रकार ही
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