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आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी म. पुस्तक बीच में मूल, ऊपर-नीचे तथा दोनों तरफ के मार्जिन में टीका इस प्रकार पाँच विभागों में लिखी जाने के कारण पंचपाठ कही जाती है।
सूढ़-जो पुस्तक हाथी की सूंढ की तरह सलंग किसी भी प्रकार का विभाग किये बिना-लिखी जाये उसे सूढ़ कहते हैं।
त्रिपाठ-पंचपाठ-सटीक ग्रन्थ ही त्रिपाठ-पंचपाठ रूप में लिखे जाते हैं । हमारी पुरातन पुस्तकें सूढ़ रूप में ही लिखी गई हैं । त्रिपाठ-पंचपाठ लिखने का रिवाज विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में आरम्भ हुआ होगा, ऐसा विद्यमान पुस्तक-भण्डारों के आधार पर कहा जा सकता है ।
लहियाओं का कुछ अक्षरों के प्रति अंधविश्वास : . लहिया पुस्तक लिखते-लिखते अचानक खड़ा होना हो अथवा उस दिन के लिए या अमुक समय के लिए लेखनकार्य बन्द करना हो तो "स्वर, क-ख-ग-ङ-च-छ-ज-झ-ठ-ढ-ण-थ-द-ध-नफ-भ-म-य-र-ष-स-ह-क्ष-ज्ञ" आदि अक्षरों पर नहीं रुकते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि- "क कटजाये, ख खा जाये, ग गरम होवे, च चल जाये, छ छटक जाये, ज जोखम दिखाये, ठ ठाम न बैठे, ढ ढली पडे (गिर जाये), ण हाण करे, थ थीरता करे, द दाम न देखे, ध धन छांडे, न नठारो, फ फटकारे, भ भमावे (भ्रमित करे), म माठो, य फेर न लीखे, र रोवे, ष खांचाळो, स संदेह धरे, ह हीणो, क्ष क्षय करे, ज्ञ ज्ञान नहीं ।" अर्थात् “घ, झ, ट, ड, त, प, ब, ल, व, श" अक्षरों पर विराम लेते हैं (रुकते हैं); क्योंकि घ घसडी लावे (खींचकर ले आये), झ झट करे, ट टकावी राखे (टिकाए रखे), ड डगे नहीं (डिगे नहीं), त तरत लावे (तुरन्त लाए), प परमेशररो (परमेश्वर का), ब बळियो (बलवान), ल लाये, व वावे (बोए), श शान्ति करे" ऐसी उनकी धारणा होती है।
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