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प्राचीन लेखनकला और उसके साधन
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चउरंगुलदीहो वा, वट्टागिइ मुट्ठिपुत्थगो अहवा । चउरंगुलदीहो च्चिय, चउरंसो होइ विन्नेओ ॥३॥ संपुडगो दुगमाई, फलगा वोच्छं छिवाडिमेत्ताहे । तणुपत्तूसियरूवो, होइ छिवाडी बुहा बेंति ॥४॥ दीहो वा हस्सो वा, जी पिहलो होइ अप्पबाहल्लो । तं मुणियसमयसारा, छिवाडिपोत्थं भणंती ह ॥५॥
शब्दार्थ- १. गंडी, २. कच्छपी, ३. मुष्टि, ४. संपुटफलक तथा ५. सृपाटि-पुस्तक पंचक । इनकी व्याख्या निम्न प्रकार है : १. जो बाहल्य अर्थात् मोटाई तथा पृथुकत्व अर्थात् चौडाई में समान एवं दीर्घ-लंबी हो वह गंडी पुस्तक । २. जो अन्त में तनु-सकरी और मध्य में चौडी हो उसे कच्छपि पुस्तक समझें । ३. जो चार अंगुल लम्बी और गोलाकार हो वह मुष्टि पुस्तक । अथवा जो चार अंगुल दीर्घचतुस्त्र हो उसे (मुष्टि पुस्तक) समझें । ४. दो आदि फलक (?) हों वह संपुष्ट फलक । अब सृपाटि का उल्लेख करेंगे । तनुपत्र-छोटे पन्ने और ऊँचाई में अधिक हो उसे पण्डितगण सृपाटि पुस्तक कहते हैं । ५. जो छोटी-बड़ी हो और चौड़ाई में कम हो उसे(भी) आगम-रहस्यज्ञ सृपाटि पुस्तक कहते हैं ।
त्रिपाट (त्रिपाठ)-जिस पुस्तक के मध्यभाग में बडे अक्षरों में मूल सूत्र अथवा श्लोक लिखकर, छोटे अक्षरों में ऊपर-नीचे के भाग में टीका लिखी जाती है वह पुस्तक बीच में मूल और ऊपर-नीचे टीका इस प्रकार तीन विभागों में लिखे जाने के कारण त्रिपाट (त्रिपाठ) नाम से जानी जाती है ।
पंचपाट (पंचपाठ)-जिस पुस्तक के मध्य में बड़े अक्षरों में मूल सूत्र अथवा श्लोक लिखकर, छोटे अक्षरों में ऊपर-नीचे दोनों तरफ के मार्जिन में टीका लिखी जाती है वह
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