Book Title: Prachin Lekhankala aur Uske Sadhan
Author(s): Punyavijay, Uttamsinh
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी म. लिया जाता है । अत: विशेष प्रयत्न द्वारा ही मात्र अमुक मात्रा में कागज प्राप्त किया जा सकता है । यह कागज रेशम के समान इतना अधिक मजबूत होता है कि खूब जोर से खींचे जाने पर भी अचानक फटता नहीं है । यहाँ पर इतना ध्यान रखना चाहिए कि पुस्तक लेखन हेतु जो कागज आते हैं वे वहाँ से ही घुटाई करके आते हैं; तथापि शरद हवा लगने के कारण कागज की घुटाई उतर जाती है । घुटाई उतरने के बाद उस पर लिखे हुए अक्षर टूट जाते हैं, अथवा स्याही टिक नहीं सकती । अतः उन कागजों को सफेद फिटकरी के पानी में से निकालकर सुखाना पड़ता है, तथा थोड़ा गीला- सूका होने पर उसे अकीक, कसोटी, अगर आदि प्रकार के घुट्टा द्वारा घोंटते हैं, जिससे भेज संबन्धी दोष दूर हो जायें । विलायती तथा हमारे देश में बनने वाले कुछ ऐसे कागज जिनका गूदा (मावा) तेजाब अथवा स्पिरिट द्वारा साफ किया जाता है, उन कागजों का सत्त्व, अस्तित्व पहले से ही नष्ट हो जाने के कारण चिरस्थाई नहीं होते, अत: पुस्तक लेखन हेतु उनका उपयोग नहीं किया गया । ऐसे विविध प्रकार के विलायती कागजों का अनुभव हमने किया है कि जो कागज आरम्भ में श्वेत, मजबूत एवं लक्षण दिखाई देने के बावजूद अमुक वर्ष बीतने के बाद देखने में श्याम तथा मोड़ते ही टूट जानेवाले हो जाते हैं । यह दोष हम प्रत्येक जात के विलायती कागजों को नहीं दे सकते हैं । कपड़ा - गेहूँ के आटे की लेही बनाकर उसे कपडे पर लगाया जाता है। सूखने के बाद उस कपड़े को अकीक या अगर आदि किसी भी प्रकार के घुट्टे द्वारा घोंटने पर वह कपडा लिखने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34