Book Title: Prachin Lekhankala aur Uske Sadhan Author(s): Punyavijay, Uttamsinh Publisher: L D Indology Ahmedabad View full book textPage 7
________________ आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी म. लिप्यान्तर करनेवाले तो भाग्य से ही मिल सकते हैं ! शायद न भी मिलें । लहियाओं के इस भयंकर दुष्काल में लेखनकला और उसके साधनों का लुप्त होना स्वाभाविक है । इस प्रकार अनेक शताब्दियों पर्यन्त भारतवर्ष द्वारा तथा अन्तिम शताब्दियों में जैन मुनियों द्वारा जीवित रखी जा सकनेवाली लेखनकला आज लगभग नाश के कगार पर पहुँच गई है । इस विलुप्तीकरण के कारण कला संबन्धी माहिती भी लुप्त होती जा रही है । उदाहरण स्वरूप, ताड़पत्र पर लिखने की विधा लगभग विलुप्त हो गई है । ताड़पत्र पर उपस्थित चिकनाई तथा चमक स्याही को टिकने नहीं देती है । उस चिकनाई को अलग करने की विधि मिल नहीं सकती । ऐसी स्थिति में इस कला के साधनों के विषय में जो भी माहिती मिले उसे लिख लेना चाहिए। इस कला के भावि इतिहासकारों के लिए उपयोगी सिद्ध हो इस दृष्टि से मैंने प्राप्त हकीकतों का इस लेख में संग्रह किया है । वर्णन की सुगमता हेतु लेखनकला के साधनों का मैं निम्नोक्त प्रमाण में तीन विभागों में निरूपण करूँगा : (१) ताड़पत्र, कागज आदि, (२) कलम, पींछी (पंख) आदि तथा (३) स्याही आदि । इसके उपरान्त पुस्तकों के प्रकार, लहियाओं के रीति-रिवाज, टेव इत्यादि की माहिती दी गई है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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