Book Title: Prachin Lekhankala aur Uske Sadhan
Author(s): Punyavijay, Uttamsinh
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 4
________________ प्रकाशकीय हमारे प्राचीन ग्रन्थ अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर हैं। हमारी संस्कृति में ज्ञान का विशिष्ट महत्त्व होने के कारण ये ग्रन्थ सुरक्षित रहे हैं। हमारे देश में प्रत्येक परम्परा ने यथासंभव ग्रन्थों का संरक्षण किया है। इसमें भी जैनों ने विशेष जतनपूर्वक ज्ञानभण्डारों को सुरक्षित एवं संरक्षित रखा है जिसके कारण आज भी जैन ज्ञानभण्डारों की व्यवस्था आश्चर्यचकित कर देनेवाली और दूसरों को प्रेरणा प्रदान करनेवाली है । इसके पीछे अनेक सदियों की साधना भी जुड़ी हुई है। इस परम्परा के कारण ग्रन्थों के लेखन, संरक्षण एवं संमार्जन की एक विशिष्ट परम्परा का विकास हुआ और तदनुसार ग्रन्थों का संरक्षण होता रहा । परन्तु दुर्भाग्य से आज वह परम्परा अदृश्य हो रही है। लेखनकला लुप्त हो रही है। अतः हम सब का दायित्व बनता है कि हम अपनी लुप्त होती हुई प्रस्तुत कला को बचा लें ! इसके लिए आवश्यकता है प्राचीन कला को जानने की । इस क्षेत्र में आगम-प्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी ने महत्त्वपूर्ण काम किया है । उन्होंने पाटण, अहमदाबाद, खंभात तथा जैसलमेर के ज्ञानभण्डारों का अभूतपूर्वरूपेण संरक्षण किया । तदुपरान्त अन्य अनेक भण्डार सुव्यवस्थित किये । वे हस्तप्रतविद्या के निष्णात थे। उन्होंने सं. १९७९ में एक संक्षिप्त और संपूर्ण माहिती सभर लेख 'आपणी अदृश्य थती लेखनकला अने तेनां साधनो' लिखा जो पुरातत्त्व नामक त्रैमासिक में छपा था । वही लेख यहाँ हिन्दी अनुवाद के रूप में मुद्रित किया जा रहा है । आशा है कि हस्तप्रतविद्या के जिज्ञासुओं के लिए यह लेख उपयोगी सिद्ध होगा । अप्रेल - २००९ जितेन्द्र बी. शाह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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