Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 1 Author(s): C K Nagraj Rao Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 4
________________ 1937-42 दशक में कन्नड़ साहित्य की अभिवृद्धि के कारणकर्ता के इने-गिने नामों मैं मेरा भी नाम था। यह मेरे लिए और भी गौरव की बात थी। जब मैं कन्नड़ साहित्य परिषद् का मानद सचिव हुआ तब मुझे कर्नाटक के इतिहास के बारे में, कन्नड़ साहित्य के इतिहास के बारे में या महाकाव्य एवं कवियों के बारे में पर्याप्त ज्ञान नहीं था। स्वभावतः पीछे हटने की प्रवृत्ति का मैं नहीं हूँ। हाथ में लिये हुए को साधित कर फल पाने की निष्ठा अवश्य रखता हूँ। उस स्थान के योग्य ज्ञानार्जन हेतु मैं लेखन को कम कर, अध्ययन तथा ज्ञानाभिवृद्धि में लग गया। यों जब मैं ज्ञानार्जन में लगा था तब ही बेलूर में, 1952 में, कन्नड़ साहित्य सम्मेलन सम्पन्न हुआ। परिषद् का मानद सचिव होने के कारण मुझ पर काफी जिम्मेदारी थी। उस कार्य के लिए बेलूर कई बार जाना पड़ा था। इतना ही नहीं, सम्मेलन से पूर्व दो-तीन सप्ताह तक यहीं ठहरना पड़ा था। तभी मुझे बेलूर एवं पोय्सलों के इतिहास के बारे में विशेष आकर्षण हुआ। शान्तला एवं जकणाचारो के विषय में मेरा भीतरी आकर्षण और तीव्र हो गया। । अभी तक यह धारणा थी कि शान्तला बन्ध्या थी, अध्ययन में लग जाने के बाद मुझे लगा कि शान्तला का सन्तान-राहित्य और आत्महत्या दोनों गलत हैं। लेकिन गलत सिद्ध करने के लिए तब मेरे पास पर्याप्त प्रमाण नहीं थे। केवल मेरी भावना बलवती हो चली थी। मेरे उस अभिप्राय के सहायक प्रमाणों को ढूँढ़ने के लिए मुझे समूचे पोयसल इतिहास के एवं तत्कालीन दक्षिण भारत के इतिहास के ज्ञान की अभिवृद्धि करनी पड़ी। अध्ययन करते समय शिक्षा विभाग के मेरे अधिकारी मित्र का आग्रह था, "जकणाचारी के विषय में 250 पृष्ठों का एक उपन्यास क्यों नहीं लिख देते? इस क्षेत्र में आपने परिश्रम तो किया ही हैं। पाठ्य-पुस्तक के रूप में सम्मिलित करा लिया जाएगा।'' इधर धनार्जन की आवश्यकता तो थी ही, इसलिए झटपट 1962 में, सितम्बर-अक्तबर में, एक सौ पृष्ठ लिख डाले। इसी बीच मुझे 'शान्तला बन्ध्या नहीं थी' सिद्ध करने के लिए दृढ़ प्रमाण भी मिल गये और तुरन्त मेरा मन उस ओर लग गया। उक्त उपन्यास का लेखन फिर वहीं रुककर रह गया। बाद के कुछ वर्ष पर्यनुशीलन में बीते। फलस्वरूप मुझमें यह सिद्ध करने की क्षमता जुट गयी कि शान्तला के तीन पुत्र और एक पुत्री थे। मैंने एक गवेषणात्मक लेख लिखा। वह मिथिक सोसाइटी की त्रैमासिक पत्रिका के 1967 के 59वें अंक में प्रकाशित हुआ। ___ मैसूर विश्वविद्यालय के इतिहास के स्नातकोत्तर विभाग द्वारा 'पोय्सल वंश' विषय पर आयोजित संगोष्ठी में आमन्त्रित प्रतिनिधि के नाते मैंने इसी विषय को फिर एक बार प्रामाणिक तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया। 'होयसल डाइनेस्टी' (Hoysala आठPage Navigation
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