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यह तो एक प्रकारका देशद्रोह है व आत्मघात है.
दूसरा परिणाम यह हुआ है कि जिन जिन नाटकों में प्राकृतभाषा का प्रयोग हुआ है, संपादक लोग उन प्रयोगों की तरफ उपेक्षित भाव रखकर उनको बराबर समझनेकी कोशिश नहीं कर पाते, अतः नाटकों में आए हुए प्राकृत गद्य भाग के प्रयोग तथा पद्य भाग के प्रयोग प्रायः आजतक अशुद्ध ही छपते आये हैं और अभी भी अशुद्ध ही छप रहे हैं । इतना ही नहीं बल्कि उन उन नाटकों के वृत्तिकार भी बिना ही समझे बुझे प्राकृतप्रयोगों की मनमानी वृत्ति लिख गए हैं जो व्याकरण की दृष्टिसे अधिकतर शुद्ध नहीं हैं.
मेरी समझमें तो ऐसा आता है कि प्राचीन भाषाओं के प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश ऐसे नाम न देकर देशभाषा, लोकभाषा, जनपदभाषा, शास्त्रीयभाषा ऐसे ही नाम प्रचारित करने जरूरी हैं, जिससे प्राचीन भाषा विषयक हमारी मिथ्या अस्मिता व खींचातानी कम हो जाय. भाषाका प्रयोजन अर्थवहन है, विचारों की लेन देनमें व प्राचीन लोगों के विचार समझने में भाषा एक माध्यमरूप है और भाषाकी सार्थकता इसमें ही है, इससे ज्यादा किसी भी भाषाका मूल्य ही नहीं है, चाहे वह भाषा वेदकी हो, जैन व बौद्ध शास्त्रों की हो अथवा किसी भी आदिवासीकी हो वा किसी ग्रामीण जनकी हो.
प्राकृत का एक व्यापक अन्य अर्थ भी इस प्रकार है: पुरानी वैदिक भाषा और भारतीय आर्यशाखानुगत कोई भी हमारी वर्तमान अर्वाचीन भाषा- इन दो भाषाओं के बीच की संकलनारूप - अनुसंधानात्मक - जो भाषा है इसको भी प्राकृत नाम दे सकते हैं.
प्राचीन पंडितों के बनाए हुए जो जो प्राकृत व्याकरण वर्तमानमें उपलब्ध हैं वे सब संस्कृत के माध्यम से लिखे गए हैं और उन सबमें अमुक अमुक परिवर्तन की प्रक्रिया संस्कृत शब्दों को माध्यम रखकर बताई गई है. अतः उन प्राचीन पंडितोंने प्रकृतिः संस्कृतम् ऐसा भी निर्देश किया है. यह निर्देश केवल माध्यम सापेक्ष है.
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