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मुनियोंने वह ठंडा अन्न तो ले लिया, मगर जब वे दहीं देने लगीं तब मुनियोंने पूछा कि - यह दहीं कितने दिनका है ? उसने खीज कर कहा कि क्या दहींमें भी जीव पड गए हैं ? पानी में तो पडनेकी बात जानती हूं.
तब मुनियोंने बड़ी नम्रता से कहा कि बहिन ! बिना पूछे वा बिना जाने हम कोई चीज लेते नहीं हैं. हमारा आचार ही ऐसा है, इसमें खीजने की कोई जरूरत नहीं है. तीन दिनका दहीं होगा तो जैसे बिना छाने जलमें जीव होते दीखते हैं वैसे उस दहीं में भी जीव उत्पन्न हो जाते हैं और दिखाई भी देते हैं.
तब मैंने कहा कि, एक तो मांग कर खाना और दहीं ताजा है या वासी है व कितने दिन का है ? ऐसा पूछना यह भिखमंगे को क्या उचित है ? मुनियोंने मेरे अनादर को नहीं गिन कर विनय भावसे जवाब दिया कि, हमारा धर्मकर्म सब अहिंसाप्रधान है - दयावृत्तिप्रधान है. हम कोई ऐसी चीज खानेको वा पहनने-ओढने को भी नहीं लेंगे जिसमें जीवों की हिंसा हो. हम भूखको सहन कर सकते हैं तथा शीतको भी अच्छी तरह सहन कर सकते हैं, परंतु जहां जीवोंकी हिंसा मालूम हो ऐसा कार्य मरणांत तक नहीं करते हैं. हमारा ऐसा ही आचार है.
हमारे ज्ञानी अनुभवी ऐसे पूर्वपुरुषोंने बताया है कि तीन दिन के दहीं में जंतु उत्पन्न हो जाते हैं. अतः हमने ऐसा पूछा, इसमें 'दहीं ताजा है वा वासी है ? ' ऐसा कोई सवाल केवल स्वाद के लिए हमने नहीं किया है वा ऐसे सवाल केवल स्वादेन्द्रियके वश होकर हम कभी भी नहीं करते हैं और इस प्रकार स्वादेन्द्रियके वश होकर ऐसे सवाल करना हमारा आचार भी नहीं है.
तब मैंने ( धनपालने ) कहा कि सचमुच ऐसा ही है तो आप दहीं में जो कीडे पैदा हुए हैं उन्हें मुझको प्रत्यक्ष बताइए, केवल श्रद्धासे मैं माननेवाला नहीं हूं. तब मुनियोंने कहा कि दहीं श्वेत जैसा प्रायः होता है और तीन
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