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- राजा सारी कथाको बड़े चावसे बहुत दिनों तक सुनता रहा । जब पूरी सुन ली तब राजाने कविसे प्रार्थना की कि कथा तो बडी ही मनोहर हुई है परंतु मेरी इच्छा है कि आप इस कथामें ऐसा क्यों न परिवर्तन कर दें कि जहां अयोध्या है वहां धारा नगरी कर दें, जहां भगवान् वृषभदेव हैं वहां वृषभध्वज महाकालका नाम बना दें, जहां शक्रावतार तीर्थ है वहां महाकाल तीर्थका उल्लेख कर दें और जहां नायक मेघवाहन नृपतिका नाम है वहां राजा भोज का नाम रख दें.
. भोजकी यह बात सुनते ही कविने चटसे स्पष्ट कह दिया कि महाराज! कोई पवित्र श्रोत्रिय ब्राह्मण के हाथमें दूधभरा कटोरा हो और उसमें मद्य का एक बिंदु भी गिर जाय तो जिस प्रकार वह दूध अपेय बन जाय, ठीक इसी प्रकार आपके सूचित परिवर्तनसे यह कथा अपवित्र हो जायभ्रष्ट बन जाय, ऐसा मुझे स्पष्ट प्रतीत होता है अतः मैं कभी भी ऐसा परिवर्तन नहीं कर सकता।
कविकी इस अत्यंत स्पष्ट निर्भय वाणीको सुनते ही राजा कोपाविष्ट हो गया और उसने उस कथाकी पुस्तकको जलते हुए अंगारोंसे भरी हुई अंगिठीमें डाल दिया।
यह देखकर धनपाल कवि उठ खडा हुआ अब और 'फिर मैं इधर कभी नहीं आऊंगा' ऐसा राजासे कहते हुए उद्विग्न होकर अपने घरकी तरफ चल पड़ा, कविको बड़ा खेद हुआ।
घर जाकर भी वह स्नान, देवार्चन, भोजन इत्यादि नित्य कर्म भी न कर सका, किसीसे कोई बात भी नहीं की और चिंतामग्न होकर औंधा मुंह करके बिना बिछौनेके जमीन पर पड़ा रहने लगा। चिंतासे उसकी निद्रा भी चली गई।
कविकी ऐसी परिस्थितिको देख कर उसकी नौ वरसकी पुत्रीने अपने
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