Book Title: Narbhavdrushtantopnaymala
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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________________ 152 : : नरभवदिटुंतोवनयमाला झोंसरु अने समिल बन्नेने हाथमां लइ सुमेरुपर्वतना शिखर उपर चाल्या गया // 10-11 / / अवरोउं समिलजुगं पवाहियं पुवअवरजलहीसुं। तत्थ जुगसमिलमेलं पेच्छिउं ते तओ लग्गा // 12 / / . भावार्थ:-अने पूर्व तेमज पश्चिम समुद्रमा समिल तेमज झोंसराने जुदा पाडी फेंकीने पाछो बन्नेनो परस्पर मेल क्यारे थाय छे ते जोवानी उत्सुकताथी बन्ने देवो ते पाछलज लाग्या // 12 // सागरजले अवारे सा समिला तं च जुगमहो गाढं / अइचहुलचंडपवण-प्पणा ल्लयाई भमंताई / / 13 // भावार्थ:-अमर्याद लवणसमुद्रना जलमां झोंसरु अने समिला (खीली) बन्ने प्रचंड पवनना झपाटाथी आडाअवला भमवा लाग्या // 13 // तत्थ गओ बहुकालो देवा परसंति मेरुचूलाए / संजोगोवि न जाओ छिद्दप्पवेसो कहं हुन्ना? // 14 // __ भावार्थ -तेवीज स्थितिमां घणोज वखत व्यतीत थइ गयो, अने बन्ने देवो पण सुमेरुना शिखर उपर छिद्रप्रवेशनी राहजोता रह्या, परंतु झोंसरुं ने समिला ए बन्नेनो संयोग पण घणे काले न’ थयो तो झोंसराना काणामां समिल (खीली) ने दाखल
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